उलुल जुलूल 6: ऐसा लगता है कि खुशियों का ओवरडोज हो चुका है।

रात.... मैं शुक्रवार की रात ही कुछ लिखना चाहता था लेकिन केवल रात लिखकर छोड़ दिया था। रात के करीब इग्यारह बजकर दस मिनट हो चुके हैं। रूम में बेहद ठंडी हवा आ रही है। मैं बिस्तर पर पीठ के बल लेट गया हूं। मैने कमरे की खिड़कियां और दरवाजे दोनो ही खुला छोड़ दिया है। मेरे पास लिखने को कुछ है नहीं। यदि ऐसा है तो मैं लिख ही क्यों रहा हूं? 

मैं कितने ही दिन से रोया नहीं हूं। कभी कभी लगता है कि खुशियों का ओवरडोज हो गया है। यह बिल्कुल अच्छा नहीं है। रोना उतना ही जरूरी है जितना हंसना है। मैं कहूं तो रोना को स्वस्थ रहने की एक शर्त होनी चाहिए। 

मैं अपने इस फोन से परेशान हो गया हूं। लिखते वक्त यह काफी लेट रिस्पॉन्स कर रहा है। इस चक्कर में मैं कई बार गुस्से से फोन नीचे रख दिया। नया फोन लेना नहीं चाहता हूं। फिजूल का खर्च है यह। अब बस कैमरा लूंगा। पिछले दो से अधिक सालों में यदि मुझे किसी एक डिवाइस ने सबसे अधिक फैसिनेट किया है तो वो केवल कैमरा है। कितना कुछ है जिसे कैमरा से कैद किया जा सकता है। मैने अपनी एक दोस्त को कहा कि शायद ऐसा कोई समय आए जब हम खाने की खुशबू को कैमरे में कैद कर सकें। शायद संभावनाओं की अनेक दीवारों को खोल देता है। केवल एक शब्द, शायद....

             (Image: brother closed the window)

अब लिखने को कुछ नहीं है। मैं अपनी गर्दन को खिड़की की तरफ मोड़ दिया हूं और एक पैर को दूसरे पैर से टकरा रहा हूं। कितना ही खाली हो गया हूं मैं। कोविड के दौरान जब मैं ब्लॉग लिखता था तो लगता था जैसे मैं उससे संवाद स्थापित करने की कोशिश कर रहा हूं जिसे मुझे कुछ बताना है। एक छुट्टी से दूसरी छुट्टी के बीच कितना कुछ बदल गया था। कितने बच्चे थे हम। मेरी गंदी आदत हो चुकी है कि मैं अब हम से मैं बोलने लग गया हूं। बोलते वक्त कभी कभी जी करता है उफ्फ ये क्या हो गया है मुझे!

जी करता है फिर से तुम्हारे साथ चलूँ। क्या दोबारा प्रेम कर पाना कभी संभव हो पाएगा मुझसे? ये कितना ही सुखद सवाल है। इसे लिखते ही आँखे नम हो गई। ऐसा लगा जैसे हृदय खुल गए। मै वादे के साथ कह सकता हूं... उन्ह...रहने देते हैं। 

मैंने व्हाट्सएप खोला। कुछ लिख दिया। शाम से ही गुस्सा आ रखा था। 
आज पेरियार का जन्मदिन है। मोदी का भी। इस एक इंसान के बारे में कितना कुछ लिखना चाहिए। शायद जब आने वाले भविष्य में कोई मेरा लिखा पढ़ेगा तो वह यह पूछ सकता है कि तुम्हारे लिखे में इस इंसान का जिक्र इतना कम क्यों है? मोदी एक वाहियात इंसान है। क्या इतना काफी है? मैं जितना लिखना चाहता हूं मैं वो डर से नहीं लिख पा रहा हूं। शायद इतना काफी होगा उन्हे यह समझने के लिए कि हम कैसे वक्त में जी रहे थे! दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक साधारण सा इंसान अपने प्रधानमंत्री की आलोचना करने में डर रहा था। 

जी करता है कि कमरे से निकलकर पार्क में बैठ जाऊं और हवा की सरसराहट को सुनूं। कितने ही महीनों से मैं अपने बगल वाले पार्क में नहीं गया हूं। अब थक गया हूं लिखते-लिखते। अब तब ही लिखूंगा जब जोर से रोऊंगा। सरसों की साग की याद आ गई है। ऐसा लग रहा है कि जल्दी से सर्दी आ जाए बस। मेरा सबसे पसंदीदा मौसम। तेरे इंतज़ार में ....

नई दिल्ली
17/09 - 18/09/2023. 



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