यादें कितनी कोमल और फ्रेजाईल होती है। मैंने अपना मोबाइल लिया। पुराने चैट्स पढ़े और कुछ मिनटों बाद मैने अपने मोबाइल को दूर फेंक दिया। एकदम से अचानक लिखने का मन हुआ। मास्टर्स के दिनों और पीएचडी के दिनों में कितना फर्क है। एक अजीब से शैशव अवस्था वाला बालक जो सबकुछ को रोमांटिक सूदिंग पीसफुल जर्नी मानकर चलता है। जो हर चीज को उसकी epitome पर रखकर जीता है। जो idealism की प्रकाष्ठा पर सबकुछ को तोलता है। और ऐसा करने के अपने मायने हैं। सुख से ज्यादा दुख हैं। अपार पीड़ा। पीड़ा को भी जो जीवन का हिस्सा मान ले। ऐसी हालत जो पीड़ा को भी अपने बदन की जरूरत बना ले।
क्या कोई प्रेम इस अवस्था के बिना गुजर सकता है? शायद गुजरे। इसी वक्त हम ठहर जाते हैं। हम हरी घास के बीच बैठकर एक सूखती घास को देख पाते हैं। हम उससे बात कर पाते हैं। हम कहीं कोने में बैठकर एक गिलहरी की सारी हरकतों को एकटक देखते रहते हैं। कहीं किसी कोने में बैठकर किसी कवि की कविता को पढ़ रहे होते हैं। हम कितने ही भटकते रहते हैं ऐसे भीड़ भाड़ वाले शहर में भी एकांत ढूंढने की। मुझे याद है मैं अपने मास्टर्स के दिनों में कितनी ही बार जामा मस्जिद के किसी कोने में घंटों बैठे रहता था। लेकिन पीएचडी होने के एक दिन भी मैं उन जगहों की तरफ नहीं गया।
कौन सी जिंदगी बेहतर है? इन सवालों का कोई उत्तर नहीं है। सारा मसला सही उत्तरों का नहीं बल्कि सही प्रश्नों का है। प्रदीपिका कहती हैं। पहाड़ों में जाके बैठना था। बहुत पहाड़ घूम के आया हूं। अब कहीं जाने का जी नहीं करता है। कोई ट्रैवल कीड़ा तो बिलकुल नहीं हूं। जितना अकेले मैं मास्टर्स और बीए के दौरान गया उतना तो मैं पीएचडी में भी नहीं गया हू। शायद पिछले तीन चार सालों में जेएनयू के अलावा और इतना कुछ पसंद भी नहीं आया। क्या सुख ओवर ग्लोरोफाईड कांसेप्ट है?
अब न जाने क्या लिखूं। मैंने अपने लिखे के साथ कभी भी पूरा न्याय नहीं किया। शायद एक प्रेम पत्र ही होता है जिसमें हम सबकुछ लिख पाते हैं। मेरी आवाजें तो अब कहीं नहीं पहुंचती हैं। क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे मैं उसे लिख भी दूं और उसका जिक्र भी नहीं हो? जैसे किसी सिनेमा का आखिरी दृश्य जहां पर आखिरी मुलाकात एक झगड़े में तब्दील हो जाती है। वो सामने से मुड़कर भी नहीं दिखती है। हमें ऐसा लगता है हम तो कुछ दिन में फिर मिलने ही वाले हैं। लेकिन अब एक साल हो गए हैं। होने वाले हैं। और इन एक सालों में उसके जाने से कितना कुछ बदल गया है। अब गिलहरी को देखने का वक्त नहीं है। अब छोटे घास और हरे घास के बीच का भी फर्क नहीं मालूम पड़ता है। अब कोई एकांत जगह ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ती है। अब कविता भी छूट चुकी है। ऐसा ही कुछ? क्या मैं उसे ऐसे ही नहीं लिख सकता हू। जिससे ये उसे मालूम पड़ जाए लेकिन और किसी को नहीं। उसके वापस आने तक कितना कुछ देखना छूट रहा है। कितने ही अफरातफरी के बीच में पता नहीं दो चिड़ियों के बीच क्या बात हो गई हो। गिलहरियों ने न जाने बात करने का कौन सा तरीका ढूंढ लिया हो।
पिछले हफ्ते खबर आई कि इमरोज अब नहीं रहे। सबसे आश्चर्य रहा कि मुझे ये मालूम नहीं था कि वो अब तक जिंदा है! अफसोस..
पिछले पांच महीने से घर नहीं गया हूं। मन करता है लेकिन जा नहीं पा रहा हूं। आसमान से प्लेन की आवाज आ रही है। अच्छी या बुरी नहीं पता लेकिन मेरी आदत हो चुकी पीछे घूम कर देखना..पलट कर अपनी जिंदगी में झांकना…उन गांठों को छूना जिससे दर्द की टीस ताजा हो। जो भी हो जहां भी रहूं…मुझे जिंदगी में इतना सुकून नहीं चाहिए। यदि हो सके तो सुख से ज्यादा दुख हो…उल्लास से ज्यादा पीड़ा हो…आनंद से ज्यादा तकलीफ हो…। आसमान शांत हो चुका है। घड़ी में सुबह के तीन बजने वाले हैं। मैं अब सोने जा रहा हूं। रूम में चक्के वाली नई कुर्सी आई है। ऑल क्रेडिट गोज टू किशन। रूम बेहद बिखरा रहता है आजकल।
नीतीश,
मुनिरका, जेएनयू ।
10/01/2024.
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