रविश को प्रथम बार कब देखा था याद नहीं है शायद बहुत पहले तो नहीं ही क्योंकि NDTV एक पेड चैनल हुआ करता था और घर में केवल आजतक,ज़ी न्यूज़ जैसे न्यूज़ चैनल ही चलते थे. जब न्यूज़ चैनल ही ऐसे थे तो वाजिब है कि देश दुनिया को लेकर धारणा भी वैसी ही बनेगी.
जब मैं न्यूज़ चैनल देखता था तो दसवीं बारहवीं तक मुझे सुधीर का शो बहुत पसंद आता था क्योंकि उसका डेटा फैक्ट्स रिसर्च काफी प्रभावित करता था और पीछे से वो किसी डिटेक्टिव शो वाली आवाज.
रविश को देखने की आदत कभी नहीं लगी लेकिन जब मोदी जी के द्वारा दिखाए गए सपने टूटने लगे और जब बी.जे.पी. वालों से मोहभंग होना शुरू हुआ तो बहुत संभव है कि हाथ घूमते फिरते किसी दिन यूट्यूब के उनके किसी ट्रेंडिंग प्राइम टाइम पर पड़ गया और फिर रविश खास हो गए.
रविश की संघर्ष की गाथा एक सच्चे हिंदी पट्टी वालों की है. वो सच्चा व्यक्ति जो अपने सच को स्वीकार करता है.आज उनके बी.बी.सी. के इंटरव्यू में साफ दिख रहा था कि कैसे वो चिठ्ठी छाँटते छाँटते मैग्सेसे अवार्ड तक पहुँच गए. रविश कुमार आपके परिवार के उस मुखिया की तरह हैं जो बाहर से जितना मजबूत दिखते हैं अंदर से उतना ही भावनाओं से भरा हुआ है. भावना है तभी तो उनकी रिपोर्टिंग करना जिनकी कोई नहीं सुनता था जिनकी समस्याएँ न्यूज़ चैनल के नाग-नागिन,भूत-प्रेत, डायन-चुड़ैल के स्टोरी में छुप जाती थी.
एक बहुत ही साधारण सी बात है कि जब आप छोटे शहरों से बड़े शहरों की तरफ बढ़ने लगते हैं तो अनेक बातें आपके दिमाग में घूमने फिरने लगती है. आप खुद को अपनी मिट्टी से काटकर उस शहर के पैरामीटर पर फिट बिठाने की कोशिश करने लगते हैं. लेकिन एक बात साफ है कि अपने अस्तित्व/वजूद को बदलकर आप महान नहीं बन सकते हैं.
रविश भी एक इंसान है.एक आम इंसान जो रो भी सकता है जो डर भी सकता है जो हार भी मान सकता है. कितने ट्रोल हुए हैं रविश..शायद उनके परिवार का ऐसा कोई सदस्य नहीं बचा होगा जिनके नाम से उन्हें गालियाँ नहीं दी गयी है. तो रविश बनने के लिए जो दूसरी चीज़ सबसे मायने रखती है वो है आपके ज़िन्दगी का वो व्यक्ति जिसने आपको सबसे मुश्किल समय में आपके कंधे पर हाथ रखकर ये कहा कि 'बहुत अच्छा कर रहे हो..बस लगे रहो'.वो व्यक्ति जब आप सबकुछ छोड़ देना चाहते हैं और उसी वक़्त उनके द्वारा दिया गया हिम्मत कि "सपने नहीं बिछड़ने चाहिए".
रविश बोलते हैं कि मैं भी एक इंसान हूँ और मुझे भी डर लगता है. एक सच है जो बहुत कम ही दिखता है कि कोई पुरुष इसे स्वीकार करे. और बेशक डरना तो चाहिए ही क्योंकि ये आपको आपकी ज़िम्मेदारी का आभास दिलाती है.
रविश मेरे लिए इसलिए भी बहुत मायने रखते हैं क्योंकि उन्होंने मुझे ये सिखाया कि प्रेम क्या होता है और प्रेम कैसे किसी समाज के लिए बहुत आवश्यक है. उनका ये कहना कि, 'यदि आप प्रेम नहीं किये हैं तो आप इस समाज की जातिवादी व दकियानूसी विचारों को तोड़ने में अपना कोई योगदान नहीं दिए हैं' अपने आप में एक सामाजिक क्रांति है. रविश की किताब 'द फ्री वॉयस' का सातवाँ चैप्टर 'हाऊ डू वी लव' हमें सिखाता है कि प्रेम कैसे करते हैं या एक सभ्य समाज के निर्माण में प्रेम का कितना महत्व है.
रविश की किताब इश्क़ में शहर होना बहुत पतली किताब है लेकिन लिटरेरी में उसने लप्रेक नाम का एक नया चलन शुरू किया. उनके लप्रेक में भी एक विचार है जो सत्ता से बगावत करता है जो समाज की बुराइयों को दिखाता है.
रविश को सबसे पहले देखे थे साहित्य अकादमी भवन में लेकिन किसी विभूति के साथ सेल्फी नहीं खिंचाने की आदत ने एक मौका दिया कि मैं उन्हें दूर से खड़े होकर देखता रहा और उनके मुस्कुराते चेहरे का आनंद ले पाया. ये भी एक अच्छी आदत है कि भीड़ के साथ मत बहिये क्योंकि रविश कुछ नया करने का नाम है. सेल्फी खिंचाने से ज्यादा अच्छी बात है आप उन महान लोगों के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कीजिये जब भीड़ उन्हें घेरकर उनसे ऑटोग्राफ या सेल्फी खिंचाने के लिए जुटता है.
रविश बनने से पहले आप स्वीकार करना शुरू कीजिये अपनी कमियों को अपने सच को अपनी मिट्टी को. जिस प्राइम टाइम पर आज वो आते हैं उन्होंने उस शो के लिए भी ये कहा कि हाँ ये शो भी कभी कभी औसत से नीचे का हो जाता है. ये स्वीकार्यता है जो आप सिख सकते हैं.
जब मैं न्यूज़ चैनल देखता था तो दसवीं बारहवीं तक मुझे सुधीर का शो बहुत पसंद आता था क्योंकि उसका डेटा फैक्ट्स रिसर्च काफी प्रभावित करता था और पीछे से वो किसी डिटेक्टिव शो वाली आवाज.
रविश को देखने की आदत कभी नहीं लगी लेकिन जब मोदी जी के द्वारा दिखाए गए सपने टूटने लगे और जब बी.जे.पी. वालों से मोहभंग होना शुरू हुआ तो बहुत संभव है कि हाथ घूमते फिरते किसी दिन यूट्यूब के उनके किसी ट्रेंडिंग प्राइम टाइम पर पड़ गया और फिर रविश खास हो गए.
रविश की संघर्ष की गाथा एक सच्चे हिंदी पट्टी वालों की है. वो सच्चा व्यक्ति जो अपने सच को स्वीकार करता है.आज उनके बी.बी.सी. के इंटरव्यू में साफ दिख रहा था कि कैसे वो चिठ्ठी छाँटते छाँटते मैग्सेसे अवार्ड तक पहुँच गए. रविश कुमार आपके परिवार के उस मुखिया की तरह हैं जो बाहर से जितना मजबूत दिखते हैं अंदर से उतना ही भावनाओं से भरा हुआ है. भावना है तभी तो उनकी रिपोर्टिंग करना जिनकी कोई नहीं सुनता था जिनकी समस्याएँ न्यूज़ चैनल के नाग-नागिन,भूत-प्रेत, डायन-चुड़ैल के स्टोरी में छुप जाती थी.
एक बहुत ही साधारण सी बात है कि जब आप छोटे शहरों से बड़े शहरों की तरफ बढ़ने लगते हैं तो अनेक बातें आपके दिमाग में घूमने फिरने लगती है. आप खुद को अपनी मिट्टी से काटकर उस शहर के पैरामीटर पर फिट बिठाने की कोशिश करने लगते हैं. लेकिन एक बात साफ है कि अपने अस्तित्व/वजूद को बदलकर आप महान नहीं बन सकते हैं.
रविश भी एक इंसान है.एक आम इंसान जो रो भी सकता है जो डर भी सकता है जो हार भी मान सकता है. कितने ट्रोल हुए हैं रविश..शायद उनके परिवार का ऐसा कोई सदस्य नहीं बचा होगा जिनके नाम से उन्हें गालियाँ नहीं दी गयी है. तो रविश बनने के लिए जो दूसरी चीज़ सबसे मायने रखती है वो है आपके ज़िन्दगी का वो व्यक्ति जिसने आपको सबसे मुश्किल समय में आपके कंधे पर हाथ रखकर ये कहा कि 'बहुत अच्छा कर रहे हो..बस लगे रहो'.वो व्यक्ति जब आप सबकुछ छोड़ देना चाहते हैं और उसी वक़्त उनके द्वारा दिया गया हिम्मत कि "सपने नहीं बिछड़ने चाहिए".
रविश बोलते हैं कि मैं भी एक इंसान हूँ और मुझे भी डर लगता है. एक सच है जो बहुत कम ही दिखता है कि कोई पुरुष इसे स्वीकार करे. और बेशक डरना तो चाहिए ही क्योंकि ये आपको आपकी ज़िम्मेदारी का आभास दिलाती है.
रविश मेरे लिए इसलिए भी बहुत मायने रखते हैं क्योंकि उन्होंने मुझे ये सिखाया कि प्रेम क्या होता है और प्रेम कैसे किसी समाज के लिए बहुत आवश्यक है. उनका ये कहना कि, 'यदि आप प्रेम नहीं किये हैं तो आप इस समाज की जातिवादी व दकियानूसी विचारों को तोड़ने में अपना कोई योगदान नहीं दिए हैं' अपने आप में एक सामाजिक क्रांति है. रविश की किताब 'द फ्री वॉयस' का सातवाँ चैप्टर 'हाऊ डू वी लव' हमें सिखाता है कि प्रेम कैसे करते हैं या एक सभ्य समाज के निर्माण में प्रेम का कितना महत्व है.
रविश की किताब इश्क़ में शहर होना बहुत पतली किताब है लेकिन लिटरेरी में उसने लप्रेक नाम का एक नया चलन शुरू किया. उनके लप्रेक में भी एक विचार है जो सत्ता से बगावत करता है जो समाज की बुराइयों को दिखाता है.
रविश को सबसे पहले देखे थे साहित्य अकादमी भवन में लेकिन किसी विभूति के साथ सेल्फी नहीं खिंचाने की आदत ने एक मौका दिया कि मैं उन्हें दूर से खड़े होकर देखता रहा और उनके मुस्कुराते चेहरे का आनंद ले पाया. ये भी एक अच्छी आदत है कि भीड़ के साथ मत बहिये क्योंकि रविश कुछ नया करने का नाम है. सेल्फी खिंचाने से ज्यादा अच्छी बात है आप उन महान लोगों के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कीजिये जब भीड़ उन्हें घेरकर उनसे ऑटोग्राफ या सेल्फी खिंचाने के लिए जुटता है.
रविश बनने से पहले आप स्वीकार करना शुरू कीजिये अपनी कमियों को अपने सच को अपनी मिट्टी को. जिस प्राइम टाइम पर आज वो आते हैं उन्होंने उस शो के लिए भी ये कहा कि हाँ ये शो भी कभी कभी औसत से नीचे का हो जाता है. ये स्वीकार्यता है जो आप सिख सकते हैं.
बहुत अच्छा,पर दोस्त प्रेम करना सिखाया नहीं जा सकता,और जो करने के लिए सिखाया जाए वो प्रेम नही|
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