डायरी ऑफ लॉकडाउन डेज: मैं बड़ा बेवकूफ हूँ। मेरा लिखा मत पढ़िए।

 
लॉकडाउन का सत्रहवाँ दिन। सोचा था रोज लिखूँगा। सोचने और करने में कितना फ़र्क़ होता है न! आठ बज रहे हैं। मंदिर में स्पीकर अब भी बज रहा है। आदत कैसे बनती होंगी?आज बीस दिन से भी ज्यादा हो गए हैं और मुझे स्पीकर कीआवाज अब भी पसंद नहीं है। शायद आदत मनुष्य की निष्क्रियता का प्रमाण है। और अच्छी आदतें?

क्या मनुष्य की निष्क्रियता सब कुछ को समाप्त कर सकती है? रिश्तों का क्या है? और प्यार..नहीं प्रेम..प्रेम पूरा-पूरा सा लगता है..रिश्तों में एफर्ट चाहिए और प्रेम में इंस्टिंक्ट। रिश्ते तब ही कायम होते हैं जब समय समय पर प्रेम नाम का इंजेक्शन उसमें भरा जाता है। लेकिम प्रेम अपना मस्त मौला आदमी। उसे रिश्तों से क्या मतलब! कुछ भी नहीं। रिश्ते जहाँ जाने हैं जाओ..प्रेम बरकरार रहता है। इसलिए तो हम रोते हैं..बेतहाशा रोते हैं..खबरदार! रोना कमजोरी नहीं है..यदि आप रो रहे हैं तो आप एक बहुत अच्छे इंसान हैं।

क्या प्रेम पर्याप्त है? इस लव एनॉफ? सर! रोहना गेरा हैं। फ़िल्म है एक। इज लव एनफ? सर! मैं जब सिनेमा देखता था न तो वो द एन्ड के साथ ही खत्म हो जाता था। फ़िल्म को रोक कर उसके डायरेक्टर का नाम पढ़ना..बहुत बाद में सीखा। रोहना गेरा ने एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई है। व्हाट इज लव गॉट टू डू विद इट। थोड़ा बहुत सटायर है।

ग्रीक सिटी स्टेट में प्रेम पर बहस हुई। प्लेटो ने सिम्पोजियम में लिखा है। मेटाफिजिक्स ऑफ लव। प्रेम वो है जो हमें हमारे उद्देश्य तक ले जाए। कैसा उद्देश्य? अच्छा या बुरा? कौन जज करेगा कि किसका उद्देश्य अच्छा है या बुरा? इंडिविजुअल? सोसाइटी? कम्युनिटी? स्टेट? लॉ? कल्चर? रिलिजन? कौन करेगा? सवाल अनेक हैं और हर सवाल के जवाब और प्रत्येक जवाब का एक वैलिड आर्गुमेंट। डोंट डिसाइड। छोड़ देते हैं। हम कोई निष्कर्ष क्यों निकालते हैं? प्लेटो ने अपनी पूरी ज़िंदगी यही साबित करने में लगा दी कि फिलॉसफर ही अच्छा राजा हो सकता है। फुकुयामा ने एक बर्लिन की दीवार के गिरने पर और सोवियत संघ के बिखराव को ही आइडियोलॉजी का एन्ड डिक्लेअर कर दिया। नाहीं केवल पढ़े लोग अच्छे शासक हुए और नाहीं आइडियोलॉजी का डिबेट खत्म हुआ। सब चल रहा है।

शायद लॉकडाउन अप्रैल के बाद भी चले। आज एक दोस्त जो बनारस में ही रह गया है। उसने कहा कि अच्छा है कि लॉकडाउन बढ़ जाय..नहीं तो हमारे पास खोने के लिए कुछ बचेगा नहीं। लिखते वक़्त बार बार उठा हूँ। दीदी आज जब दूध लेकर आयी तो उन्हें थैंक यू बोला। वो देख रही थी। हम घर के बाहर कितने थैंक यू और सॉरी बोलते हैं। शायद आवश्यकता से अधिक।

बनारस में तीन साल रहते हुए कभी कभी शहर से बोर हो जाता था। लेकिन अब दूर रहकर लगता है कि काफी कुछ है बनारस में जिसे अब भी देखना बाकी है। हम जब सर्किल से बाहर होते हैं तो हम चीजों को ज्यादा अच्छे से देख पाते हैं। जैसे शहर से दूर जाकर शहर की भागदौड़ को देखना। गंगा के पार जाकर गंगा आरती को देखने के लिए उछलते कूदते लोग। माइकल वाल्ज़र थे एक। कहते थे कि हर चीज़ की वैल्यू है और वो प्रत्येक लोगों के हिसाब से तय होती है। काम्प्लेक्स इक्वलिटी की बात करते थे। बड़ा इंटरेस्टिंग है सब। लगता है इस दुनिया में सब कुछ कह दिया गया है। फिर भी हम पढ़ने की बजाय लिखने में लगे हुए हैं। कुछ नया देने में। कुछ कमी निकालने में। मैं बड़ा बेवकूफ हूँ। मेरा लिखा मत पढ़िए। फाइनल करते हैं। नींद आने लगी है। सोऊंगा नहीं। पैरासाइट लगाया है डाउनलोड होने। हाँ, ऑस्कर वाली। हॉलीवुड देखने का ट्राय कर रहा हूँ।

✍️नीतीश

Comments

  1. अक्सर दूर होने के बाद पता चलता है कि बहुत कुछ देखना, सुनना, कहना रह गया है!
    मैं गाँव में हूँ, अक्सर लाइट कट जाती है और कई-कई घण्टों तक नहीं आती। उस बीच मेरा फोन ऑफ रहता है तो ढेर सारे काम याद आते हैं, बहुत लोगों को फोन करने का मन होता है, और भी बहुत कुछ याद आता है। परन्तु वापस फोन हाथ में आते ही सारी इच्छाएँ ख़त्म! करीब रहने के बाद महत्व अक्सर कम हो जाता है।

    बढ़िया लिखते हैं आप! कोई लाग-लपेट नहीं, जो चल रहा है मन में, हूबहू वही.. सुकून मिलता है पढ़कर। ❣️

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  2. Tum bas likhte raho, ye boht jaruri hai.

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  3. आप बेहद खूबसूरत लिखते हैं नीतीश । ऐसे ही जारी रखिये। हर नया लेखन विचारों को प्रौढ़ता की ओर ले जाता है।

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