डायरी ऑफ लॉकडाउन डेज : सपने देखना हमारी स्वतंत्रता का द्योतक है।

तस्वीर गया जिले की है।
लॉकडाउन के इक्कीस दिन के बाद का तीसरा दिन। सबकुछ बहुत ही आसानी से चल रहा है। घर पर उतने ही डिसेस इसबार भी खाया हूँ जितना पहले घर आने पर खाता था। इस बीच एक पर्व आया जिसे हमारे यहाँ सिरुवा कहते हैं। घर में एक साथ दस प्रकार की सब्जी बनी। मैं इतनी सब्जी एक साथ देख कर डर जाता हूँ। सुबह के आठ बजकर आठ मिनट। कितने दिन से लिखने का सोच रहा था। अब अफवाह सुनने को नहीं मिल रहा है। गया से मेरे एक दोस्त ने मुझसे पूछा कि पढ़ने में मन कैसे लगाया जाय? मेरे पास इस सवाल का कोई आसान सा जवाब नहीं है।

मैंने फ्रायड का 'इंटरप्रेटेशन ऑफ ड्रीम्स' पढ़ने का कोशिश किया। फ्रायड बेहद ही जुझारू हैं। हैं..हाँ क्योंकि जब हम किसी लेखक की किताब को पढ़ते हैं तो लेखक से बात कर रहे होते हैं इसलिए एक पाठक के लिए लेखक कभी नहीं मरता है। फ्रायड ने सपने पर बहुत कुछ लिखा है। उसका मानना है कि हम जो सपने देखते हैं उसे इंटरप्रेट किया जा सकता है। वो कहते हैं कि हम जो सपना देख रहे होते हैं वो हमारी इच्छा की पूर्ति है। मतलब हम जो इच्छा अपने अंतर्मन में पालते हैं उसे ही हम ड्रीम में देखते हैं। फ्रायड आगे बढ़ते हैं तो वो कहते हैं कि ड्रीम के बीच जो रूकावट है वो हमारा डर है जिसे हम दबाना चाहते हैं या किसी के सामने स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। यहाँ तक कि अपने अंतर्मन की अस्वीकारोक्ति भी हमारे टूटे फूटे सपने के रूप में प्रकट होती है। फ्रायड के ड्रीम थ्योरी को अपना कर राज्य की स्वतंत्रता की जाँच होनी चाहिए। जिस राज्य के नागरिक जितना अधिक सपना देखते हैं वहाँ के नागरिक उतने स्वतंत्र हैं। सपने देखना हमारी स्वंतंत्रता का द्योतक है। कोई तो इसपर भी काम किया ही होगा। कोई तो सोचा होगा।

हम कितना कुछ सोचते हैं क्योंकि हमारा पेट भरा है। यदि इस दुनिया में सबका पेट भर दिया जाय यदि उसको इस बात की चिंता न हो कि पेट कैसे भरा जाय तो मनुष्य अपनी चिंतन शक्ति से कहाँ पहुँच सकता है। हमें जिंदा रहने के लिए कितनी कम चीजों की ज़रूरत है। लेकिन जिसे चिंतन शक्ति मिला हुआ है वो शांति से कैसे बैठे? वो केवल अपना पेट भरकर कैसे रह पाए?

मैं अक्सर सोचता हूँ कि मनुष्य का मूल स्वभाव कैसा है? क्या वो पाश्विक व क्रूर स्वभाव का है या फिर वो मूल रूप से अहिंसक व शांतिप्रिय होता है? इस सवाल के जवाब में मैं हॉब्स व रूसो को देखता हूँ और मुझे दोनों प्रभावित करते हैं। रूसो इंसान के अवनति के कारण में साइंस, रीज़न व इंस्टीट्यूशन्स को जिम्मेदार मानते हैं जिसने हमारे सामने ऐसी परिस्थितियों को पैदा किया है जिसके कारण हम लड़ाई-झगड़ा करते हैं। अगर मैं हॉब्स का मानूँ तो इंसान के अंदर डर व कामना( फियर एंड डिजायर) ने उसे पाश्विक बनाया है और वो जन्म से ही डर के साथ पैदा होता है। मैं यहाँ इनदोनों को इसलिए उद्धरित कर रहा हूँ क्योंकि मुझे ये समझना है कि क्या इस महामारी को विश्व के देशों के बीच में असहयोग की भावना ने इतना बड़ा बना दिया है? क्या हम एक दूसरे का जितना सहयोग कर रहे हैं वो भी दबाव में तो नहीं? यदि सहयोग दबाव से आ रहा है तो इसका मतलब इंसान स्वार्थी है? हम पाश्विक हैं, हमारे अंदर असहयोग की भावना है, हम खुद की चिंता करते हैं और अगर ऐसा है तो हमारा विनाश कोई नहीं रोक सकता है। 

लिखने के बीच एक बार उठा हूँ। तीन बार व्हाट्सएप और कई बार टेलीग्राम को चेक किया। ये जानते हुए कि कोई मैसेज नहीं ही होगा। इतने दिनों में एक बार और इस बात का आभास हुआ है कि लिखने के लिए भी प्रैक्टिस की ज़रूरत है। लम्हें बहुत स्ट्रांग होते हैं। आप किसी से हज़ार किलोमीटर दूर चले जाएं लेकिन उनके साथ बिताए गए समय हमें फिर से उसी लम्हों में खींच लेता है। लेकिन वो तभी होता है जब आप उसके साथ वहाँ पर शत प्रतिशत हों। जहाँ पर हमारा बॉडी अपने सारे प्रिविलेज का त्याग कर देता है। कम्पलीट होते हैं जहाँ हम। वो लम्हें सबसे ज्यादा स्ट्रांग होते हैं। अमृता ने कहा है न कि 
यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं, 
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी...

✍️ नीतीश








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