पूरे दिन कार्ल मार्क्स पर लिखते रहा। कुल तीन आर्टिकल लिखा। लेकिन किसी को पब्लिश करने का नहीं सोचा। लॉकडाउन बढ़ते जा रहा है। आज 4000 पोजीटिव केस एकदिन में मिला। आज मार्क्स का 202वाँ जन्मदिन है। हालाँकि मैं जन्मदिन मनाने में विश्वाश खोता जा रहा हूँ। लेकिन पूर्ण विश्वास खोने की प्रक्रिया में हूँ। पता नहीं क्यों?
मार्क्स उस रेसिस्टेंस का नाम है जिसने कैपिटलिज्म की चूलें हिला दी। डरने लगे थे लोग। मजदूरों ने अपने आप को समझा। पूँजीवाद कोई परफेक्ट नहीं था। उसने खुद को सिंगल बॉस मान लिया। वो सामंतवाद से भी खतरनाक था। वो उसकी बर्बादी पर नहीं बल्कि उसके ज्यादा तगड़े और मॉडर्न फॉर्म में था। उसने इंसान के मस्तिष्क पर एक परत चढ़ा दी। उसने सबको ये विश्वास दिलाया कि तुम भी वैसे बन सकते हो जैसे एक बड़ा पूंजीपति वर्ग है। मार्क्स ने इन सब को इनकार कर दिया। उसने कहा ये सब एक चोंचला है। लिबर्टी, इक्वलिटी, जस्टिस, स्टेट, राइट्स सब एक फ़ांस है जो हम सबको नचा रहा है। कैपिटलिज्म गलत है क्योंकि ये अनइवन डेवलोपमेन्ट को प्रमोट करता है क्योंकि ये संभव ही नहीं है कि शोषण पर टिकी उत्पादन व्यवस्था में सब सम्पन्न हो। कोई तो शोषित होगा तब ही कोई सम्पन्न हो पाएगा। मार्क्स के विचार भले ही कहीं भी पूर्ण रूप से नहीं लागू हो पाया लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि वो असफल हैं। मार्क्स ने दुनिया के कितने स्कॉलर को प्रभावित किया है। शायद हज़ारों या लाखों। पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना। ये कतई नहीं है कि मार्क्स की राइटिंग बोगस थी। डिपेंडेंसी थ्योरी है एक। ए.जी.फ्रैंक, समीर अमीन, जैसे लेखकों ने लिखा है। कैसे दुनिया के पूंजीपति देशों की कामयाबी अफ्रीका, एशिया व लातिनी अमेरिका के गरीब देशों के शोषण पर आधारित है।
पूँजीवाद ने हमें हमारे जिंदगी के हर एक क्षेत्र में प्रभावित किया है। हम क्या पहनेंगे, क्या खाएंगे, क्या सोचेंगे, कैसे रहेंगे, सब कुछ! 'हाऊ यूरोप अंडर डेवलप्ड अफ्रीका' जैसी किताब में वो सब कुछ है जो ये दिखाता है कि पूँजीवाद ने कैसे पुरी दुनिया को शोषण व शोषक के चंगुल में फंसाया है। मार्क्स प्रो ह्यूमन थे। वो कैपिटलिस्ट इंसान के अगेंस्ट नहीं थे। वो ऐसा मानते थे कि इस व्यवस्था में एक दिन ऐसा आएगा जब पूंजीपति अपने द्वारा बनाई गई रस्सी से खुद ही फांसी के तख्ते पर चढ़ जाएगा। मैं मार्क्स का सपोर्टर नहीं हूँ। लेकिन राजनीति विज्ञान पढ़ते वक़्त ये साफ लगा कि जैसा मार्क्स कहते थे कि दुनिया के सभी फिलोसोफेर्स ने दुनिया को केवल इंटरप्रेट किया है और अब इसे बदलने का समय है।
मैं अक्सर सोचता हूँ कि एक फिलोसोफेर्स को कैसे जज किया जाय। उसके इंटेंशन से या उसके कहे गए से कितना बदलाव हुआ है इससे? मेरा मानना है कि एक इंटेलेक्चुअल को अच्छा या बुरा कहना मेरा अपना कॉन्सइंस है। जहाँ मैं उसे अच्छा समझता हूँ जिसकी राइटिंग्स में उस बू या गंध को समाप्त करने की बात की गयी है जो लेबर क्लास के बॉडी से निकलता है। जो उस बू से नफरत नहीं करता है लेकिन जो उस बू को अपनाता है और इसे समाप्त करने के लिए लिखता है जिसका तरीका जो भी हो। मैं उसे ही अच्छा मानता हूँ जिनकी राइटिंग्स में उसकी बात हो जो आज भी मेरे गांवों में किसी एक बस्ती में देखने को मिलता है जो आज भी मेरे खेत में काम करता है। जिसकी लिखनी समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति की तरफदारी करता हो। साफ है मार्क्स इसमें पास है। अव्वल दर्जे से। इसलिए मार्क्स मुझे पसंद हैं। उनके इंटेंशन को मैं मोहब्बत करता हूँ इसलिए मार्क्स को मोहब्बत करता हूँ। लेकिन तरीका बुलेटप्रूफ नहीं भी हो सकता है। उसमें खामियाँ हैं या नहीं भी? सुधार किया जा सकता है। मैं मार्क्स से नफरत स्टालिन या माओ या फिर भारत के किसी कम्युनिस्ट पार्टी के पॉलिसीज के कारण नहीं करूँगा और नाही हमारे विश्विद्यालय के किसी कामरेड के गलत करतूतों के कारण।
पिछले साल बिल्कुल इसी दिन मैंने सोचा था कि मैं मार्क्स को पढूँगा और अगले साल इसी दिन उनपर लिखूँगा। मुझे मार्क्सिस्ट बनने से पहले ही सब मार्क्सिस्ट कहते थे। आई वाज डिक्लेरेड कॉमरेड, मार्क्सिस्ट, अर्बन नक्सलिस्ट, कम्युनिस्ट बय मय फ्रेंड्स। दैट टाइम आई इवन डिन्ट नो अबाउट क्लास स्ट्रगल, मटेरिअलिस्ट कन्सेप्शन ऑफ हिस्ट्री, बट नाउ आई नो। मैं मार्क्सिस्ट कभी नहीं बन पाया और नाही क्रांतिकारी।
रेसिस्टेंस करने वाले को अक्सर चौतरफा वॉर किया जाता है। मर्क्सिजम उससे बेहद ही बदनाम हुआ। हमारे देश में कम्युनिज्म की बची खुची इज़्ज़त यहाँ के कम्युनिस्ट पार्टियों ने ले ली। आम जनता के पास केवल खबरें पहुँची। ये एक बेहद ही जटिल विचारधारा है। समझते समझते तक हम इंटेलेक्चुअल कहलाने लगते हैं और फिर एक्टिविस्ट। क्रांतिकारी कोई बचता ही नहीं है।
अरे बहुत खतरनाक है ये। हिंसा की बात करता है। मार-काट है इसमें बहुत। भारत में गांधी बेस्ट हैं। मेरा रूममेट कहता था कि Gandhism= Communism-Violence. अच्छा लगा मुझे। मैं कोई
रोबर्ट नॉजिक नहीं था जो अपने रूममेट के आइडियाज को जॉन रॉल्स समझकर धज्जियां उड़ाता। मार्क्स के जन्मदिन पर मुबारकबाद। जैसे जैसे उम्र बढ़ते जा रही है वैसे वैसे मार्क्सिज्म कम होते जा रहा है। लेकिन मार्क्सिज्म ने मुझे ये सिखाया है कि किसी भी आइडियोलॉजी में कैद नहीं रहना है। बंधन सभी प्रकार से हमारा शोषण करता है। कभी शारीरिक, कभी मानसिक, कभी यही सोचने में कि हम शोषित है या शोषक? जैसे आज मैं खेत में खड़े होकर ये सोच रहा था कि मैं शोषित हूँ या शोषक? रिलेटिव तुलना है। पैरासाइट देखिये। यही है कि हम सब विक्टिम हैं। इस शोषण व्यवस्था में, इस उत्पादन व्यवस्था में हम कब शोषित(oppressed) से शोषक(oppressor) बन जाते हैं पता ही नहीं चलता है। शायद हम शोषक(oppressor) बनकर ही शोषण(oppression) समझ पाते हैं और जबतक शोषण(oppression) को समझ पाते हैं तबतक हम शोषण करने ( oppressor) के आदी हो जाते हैं और उसे जस्टीफ़ाइड भी कर देते हैं। मैं कर रहा हूँ न....
"आइडियोलॉजी इज द मोस्ट एलुसिव कांसेप्ट।"
मैं लंबी सांस लेता हूँ। खाने की बुलाहट आ गई है। सब्जी पापा के बटाईदार (जो ज़मीन पर मेहनत करता है,लेकिन जमीन पर मालिकाना हक़ न होने के कारण केवल आधा हिस्सा पाता है) कभी कभी पहुँचा देते हैं। आपको लगा कि मैं शोषक हूँ...और जब मैं बाजार जाता हूँ तो लगता है कि मैं शोषित हूँ...
✍️ नीतीश
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