डायरी ऑफ लॉकडाउन डेज: आँसू अधूरेपन को भरने की कोशिश है।

ये लॉकडाउन तीन पॉइंट ओ भी खत्म होने वाला है। अब तो ऐसा लगता है कि काउंटिंग यूँही जारी रहेगी। अजीब रहता है सबकुछ। पता नहीं, हूँ, अजीब, ठीक, अच्छा, ये सब शब्द कितने सारे अर्थों को एकसाथ बयाँ कर सकता है। केवल शब्द पर थोड़ा जोर और ध्वनि के दबाव का मामला है। मैंने ये क्यों सोचा कि मैं लिखूँगा। मैं पढूँगा। मैं फिल्में देखूँगा। हम इतने प्रिविलेज्ड हैं कि हम सोच भी लेते हैं कि हमें ये करना है। सोचना और फिर उस पर अमल करना ही हमें एक खास वर्ग में खड़ा कर देता है। शायद रोज रोज के इस कीच-कीच को सुनकर सब सामान्य लगने लगा है। मजदूरों का पलायन ये सामान्य कहाँ था! यहाँ बीस मजदूर वहाँ दस मजदूर कहीं कट गए, कहीं रौंद दिया गया। सबका सामान्यीकरण जैसा हो रहा है। मीडिया, हम, फेसबुक, लेखक सब बड़ी-बड़ी खबरों को 'इट्स नार्मल' करते जा रहे हैं। सरकार, समाज, देश, इंसान, मानवता कौन विफल है यहाँ? हम पहले से बेहतर हैं या हम पहले जैसे ही हैं? चीन के एक लेखक कहते हैं कि स्मृतियों को जिंदा रखना चाहिए। स्मृति विहीन इंसान खोखला है। कोरोना की इसी स्मृति के बल पर हम आने वाले दिनों के लिए तैयार होंगे।

घर पर अब सब बोरिंग है। तमाम फ्रस्टेशन के बावजूद लाइफ गोज ऑन। जिंदगियां रुकनी नहीं चाहिए लेकिन प्रत्येक स्मृति को जिंदा करने का काम दर्द से रिसते हुए गुजरता है। करीब एक महीने पहले। करीब इसी दिन एक साल पहले। करीब इसी दिन दो साल पहले। करीब इसी दिन तीन साल पहले। स्मृतियों को केवल एकांत में ही याद करना चाहिए। कहीं पढ़ा या सुना था कि रेस्टलेसनेस इसलिए है क्योंकि हम कम्पलीट नहीं है। हम जिस मोमेंट्स को सोचकर दुखी होते हैं उस मोमेंट्स में हम कुछ और करना चाहते थे जो वहीं अधूरा छूट गया। आँख के आंसू उसी अधूरेपन की भरपाई करता है। सम्भव ही नहीं है।

मैं कोरोना के बाद का समय सोचता हूँ जहाँ यूनिवर्सिटी का आखिरी इम्तिहान है। फिर से एक नए शहर की ओर पलायन। नए शहर की ओर पलायन लगभग पक्का है। बनारस छोड़ने का निर्णय बहुत पहले ले चुका था। पता नहीं क्यों चिढ़ सी मची हुई थी उस शहर से। आज जब फेसबुक पर फोटोज देखता हूँ तो हर सड़क की यादें ताजा हो जाती है। लेकिन मोहब्बत के बावजूद अलग और दूर रहना बेहद ही जनता फैसला है। ज़िंदगी में कई बार लेने पड़ते हैं। सब लेते हैं। शायद दिल्ली या फिर हैदराबाद या बेंगलुरु कुछ भी हो सकता है। प्रत्येक शहर अजनबी है। दिल्ली कुछ कम अजनबी है। क्या है शहर में? यूनिवर्सिटी गांवों में क्यों नहीं बनते हैं? मेरे जैसे लड़कों के पास अब बहुत कम ऑप्शन्स बचे हैं। बने बनाये ढर्रे पर चलना अब खुद को समाप्त करने जैसा है।

मैं दरवाजे पर बैठकर लिख रहा हूँ। बेहद ही ठंडी हवा चल रही है। मच्छर के कारण पैर के सहारे पूरे बॉडी को मूवमेंट में रखने की कोशिश कर रहा हूँ ताकि मच्छर स्टेबल न रह पाए। हमेशा चलते रहना चाहिए। एक जगह ठहर कर कुछ भी पूरा नहीं महसूस किया जा सकता है। उस जगह को भी नहीं। शायद। मैं अक्सर अपनी बैचेनी को शांत करने के लिए लिखना चाहता हूँ। लेकिन ये शांत नहीं हो पा रहा है। वो नहीं लिख पा रहा हूँ जो लिखना चाहता हूँ। ऐसा होता भी कहाँ है? मैं अक्सर खुद को ईमानदारी से बयाँ नहीं करता हूँ। गाँठ सी जमी है अंदर। पता नहीं कब और कौन से समय लिख पाऊँगा या कह पाऊँगा! इंतज़ार एक भरपूर हौसला वाला शब्द है।

✍️नीतीश

Comments

  1. प्रत्येक के जीवन में वह क्षण जरूर आता है जब आप पुरानी यादों को पीछे छोड़कर नई यादें बनाने के लिए निकलते हैं। वह क्षण यही है, जाइये स्वर्णिम भविष्य आपका इंतिज़ार कर रहा है।

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