गाँव में टहलते वक़्त..

(चाची के मोबाईल से ली गयी मेरे गाँव के सूर्यास्त के समय की तस्वीर)

इन दिनों घर में रहते हुए अपने भाइयों से, बहनों से, घर के अन्य सदस्यों से घुलने मिलने और बातचीत करने का ज्यादा अवसर मिला है। मैं बिल्कुल भी इस बात से आश्चर्य में नहीं हूँ लेकिन मन व्यथित ज़रूर रहता है कि हमारे परिवार के लोगों में भी मुस्लिमों के प्रति बनी बनाई धारणा गहरा घर कर चुकी है। जैसे मैं कुछ उदाहरण देना चाहूँगा। मेरी एक दीदी बोलती है कि सलमान खान तो पाकिस्तानी है उसको यहाँ से चला जाना चाहिए। मुसलमान हमारे देश का थोड़े ही है। मेरा छोटा भाई तो अभी से यही बोलता है कि भैया मुस्लिम को तो पाकिस्तान चला जाना चाहिए। उसको यहाँ नहीं रहना चाहिए। 

जो कोई भी ऐसी बातें करता है तो मैं उन सबसे एक कॉमन सवाल ज़रूर पूछता हूँ कि वो ऐसी बातें कहाँ से सीखे हैं। सबका जवाब बहुत हद तक कॉमन ही रहता है। वो सब बहुत ही कॉंफिडेंट होकर बोलते हैं कि टीवी में देखे हैं।

कोरोना के समय मुसलमानों के प्रति जो कुछ भी द्वेष निकला है वो तो बस हमें साफ तौर से दिख रहा है। हमारे समाज में हिंदू जातियों का अब मुसलमानों के साथ घुलना मिलना और इंटरेक्शन बेहद कम होता जा रहा है। अक्सर गांवों में बस्तीयाँ जाति और धर्म के हिसाब से ही है।

मैंने अपनी नौ वर्ष की भांजी से पूछा कि क्या तुम जानती हो कि देश के प्रधानमंत्री कौन हैं? 

उसने कहा, "मोदी जी।" 

क्योंकि वो पश्चिम बंगाल में रहती है तो मैंने फिर पूछा, "क्या तुम जानती हो कि बंगाल की मुख्यमंत्री कौन हैं?" 

तो वो थोड़ा रूक कर बोली, "ममता बनर्जी..."
 
मैंने फिर पूछा, "तुम्हें कौन अच्छा लगता है?"

वो बोली, "मोदी जी!" 

मैंने फिर पूछा, "ममता बनर्जी कैसी लगती हैं?" 

वो बोली, "वो अच्छी नहीं लगती हैं!" 

मैंने फिर पूछा, "क्यों?" 

वो बोली, "क्योंकि वो ना सिर्फ मोदी जी को रोकती है और मोदी जी ना हमलोग को कोरोना में हेल्प किये हैं; हमारे साथ रहे हैं।"

इसबार मैं बिल्कुल आश्चर्य में था क्योंकि मोदी को पसंद करना एक हद तक पचने वाली बात है लेकिन बीजेपी का ममता के खिलाफ का सबसे बड़ा एजेंडा बंगाल में कितना काम कर रहा है वो इस बच्ची की बातों से पता चल गया।

मैं जब पहले घर आता था तब मुस्लिम, पाकिस्तान, चीन, युद्ध और मोदी के गुणगान की इतनी बातें गाँवों में नहीं सुनता था लेकिन अब ये सब बातें बहुत बढ़ चुकी है।

इस बात को साफ समझा जा सकता है इससे कि जितने भी मुख्य न्यूज़ चैनल्स हैं वो सब फ्री डिश पर उपलब्ध है। गाँवों में लोगों की पहुँच टीवी तक बहुत बढ़ चुकी है। यदि कोई भी न्यूज़ चैनल्स लगाएगा तो उसपर यही सब एजेंडा को चलाया जा रहा है। गाँव के लोग कम पढ़े लिखे हैं और उन्हें टीवी पर जैसा समझाया जाता है वो उसे स्वीकार करते चलते हैं। जो कुछ समझदार लोग होते हैं वो भी ग्राफ़िक्स और डेटा का मिसरिप्रजेंटेशन में फँस कर एजेंडा को सच मान कर स्वीकार कर लेते हैं।

मैं अक्सर ऐसी बातों को सुनकर विचलित होने लगता हूँ। कभी-कभी तो झल्ला भी जाता हूँ यदि बोलने वाला बहुत नजदीकी हो। लेकिन अक्सर कोशिश करता हूँ कि ऐसे विचारों को नकारना सिखाऊँ। मैं उसे संविधान की कुछ बातें बताता हूँ। मैं एक दो बार आर्टिकल पंद्रह भी सुनाता हूँ। 

मेरे दोस्तों, इस खतरनाक बढ़ती प्रवृत्ति को रोकना बेहद ज़रूरी काम है। मैं पिछले कई दिनों से कुछ ऐसे ग्राफ्स या चित्र को बनाने की कोशिश कर रहा हूँ जिससे अपने भाइयों को अपने बहनों को मानवता के मूल्यों को अच्छे से समझा सकूँ। सामाजिक विज्ञान पढ़ने का क्या ही फायदा होगा जब कोई हमारे नाक के नीचे से हमारे समाज और आसपास के लोगों को कट्टर और रूढ़िवादी बना दे। 

हमारे देश में राजनीति को बहुत ही ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। हमें राजनीतिक नहीं सामाजिक बदलाव की ज़रूरत है और ये सामाजिक बदलाव राजनीतिक प्रतिष्ठान से नहीं बल्कि समाज के बीच से ही लाने की ज़रूरत है। उपभोक्तावाद के सहारे हम अपंग होते जा रहे हैं। आध्यात्म की ओर मुड़ना ही हमारे सभी समस्याओं का सस्टेनेबल उपचार है।

अपने घर के लोगों से राजनीतिक सवाल करना मेरी आदत है। ईश्वर पर मैं ढेरों प्रश्न करता हूँ। मुझे जब भी मौका मिलता है तो मैं जाति-धर्म-शिक्षा से जुड़े एक-दो सवाल तो कर ही देता हूँ। सबने मुझे नास्तिक डिक्लेअर कर दिया है लेकिन मैं बस ये जानना चाहता हूँ कि आखिर ईश्वर को मानने के पीछे उनकी क्या वजह है? अक्सर वजह कुछ नहीं मिलता है सिवाय इसके कि बस भगवान हैं और उनकी पूजा करो। 

हाँ, इस लॉकडाउन में मैंने अपने सबसे छोटे भाई जो कि केवल छः वर्ष का है; को ईश्वर पर सवाल करना सीखा दिया। अब जब घर में कोई भी आये तो वो उससे सवाल करता है कि, "बोलो भगवान हैं?" मैं यदि दूर से भी उसकी ये आवाज सुन लेता हूँ तो मुझे ये आभास होता है कि प्रश्न करने की सबसे सुंदर भारतीय परंपरा उसके अंदर पनप रही है। 

'बिलीफ' इंसान के खोज और प्रश्न करने की प्रवृत्ति में बहुत बड़ा बाधक है और ईश्वर यदि कुछ है तो उसे बिना ढूंढे स्वीकार कर लेना ईश्वर के सर्वोत्तम गुणों तक पहुँचने के मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है।

नीतीश

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