( तस्वीर मेरे द्वारा प्रथम वर्ष में ली गयी थी)
यदि हो सके तो मेरे हिस्से का सुख, मेरे हिस्से का दुख, मेरे हिस्से की खुशियाँ, मेरे हिस्से का ग़म, मेरे हिस्से की सफलता और मेरे हिस्से की असफलता सब तुम कुछ-कुछ अपने पास रख लेना। इस सब कुछ-कुछ से तुम अपने आँगन में उगे पौधे को सींचना, घास को मस्ताने देना, ईंटों को भरपूर मजबूती देना और इन्हीं मोहब्बत से तुम्हारे यहाँ रहने के लिए आने वाले हर नासमझ बच्चे को मानवता के उच्च आदर्श से सींच देना, नहा देना। आखिर मैं भी जब तुम्हारे पास आया था तो क्या ही था? एक दूषित विचारों से भरे, अधकचरे ज्ञान से खुद को विद्वान समझने वाला एक बालक जो जाति, धर्म, राष्ट्र, राज्य और राजनीति के जंजाल में उलझा हुआ था? क्या ही था मेरे पास इसके अलावे कि मैं एक इंसान था जो केवल साँसें ले रहा था जिसे इंसानियत और मानवता के आदर्श तक का इल्म नहीं था? मैं ये सब प्रार्थना किससे कर रहा हूँ? तुम्हारे यहाँ रहते हुए ही तो मैंने उसपर भी सवाल करना सीख लिया जिसपर मेरे परिवार के लोग प्रत्येक वर्ष हज़ारों खर्च कर देते थे। जिसको मैं दसवीं तक साँझ में खूब बत्ती और दीप दिखाता था।
इंसान के लिए किसी से अटैच्ड होकर बेइंतहा मोहब्बत करना; स्प्रिचुएलिज्म में सही नहीं माना जाता है। मैं तुम्हें कोई ओवरग्लोरिफय नहीं कर रहा हूँ लेकिन हाँ मुझे तुमसे अटैचमेंट है। मैं जब भी तुम्हारे यहाँ बिताये समय को सोचता हूँ तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं। क्यों? रीज़न का एक लिमिटेशन है और कुछ चीज़ें उस लिमिटेशन के बियॉन्ड है और मेरा तुमसे मोहब्बत उसी लिमिटेशन के बियॉन्ड कहीं अनंत ब्रह्मांड में है जिसे खोजना मेरे बस की बात, कम से कम अभी तो नहीं है।
कहते हैं कि दूरी से मोहब्बत बढ़ती है तो मैं अब तुमसे दूर हूँ। लेकिन तुमसे विदाई ऐसी होगी ये मैं कभी नहीं सोचा था। जिस वक्त मैं मार्च में तुम्हारे आँगन से जा रहा था तो मुझे बिल्कुल ये नहीं लगा था कि मैं स्नातक के अपने आखिरी दिन तुम्हारे पास नहीं बिता पाऊँगा। तुम्हें पता है मैं उस भीषण महामारी में भी तुम्हें नहीं छोड़ना चाहता था। मैं डटा हुआ था तुम्हारे कुछ और प्रेमी के साथ लेकिन प्रोफेसर ने अल्टीमेटम जैसा कुछ सुना दिया तो जाना पड़ा। मैं कितना अनभिज्ञ था। वो एकदम सुबह का वक़्त था जब मैं अपने घर के एक कमरे में ताला लगा रहा था। मैं तुम्हें बिल्कुल भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक बार जी भरकर तो देख ही लेना था मुझे तुमको!
मैं तुमसे ऐसी विदाई चाहता था कि एक-एक सामान को पैक करते वक़्त मैं रोता रहूँ। मैं जब वहाँ से चलूँ तो मेरे पैर चलने के लिए नहीं उठे। मैं बार-बार तुम्हें मुड़कर देखूँ और तब तक देखता रहूँ जब तक तुम मेरी आंखों से ओझल न हो जाओ। मैं सबको कसकर गले लगाना चाहता था और तुम्हारे प्रति मेरे दिल में जितनी मोहब्बत है उसे अपने अनुजों में छोड़ देना चाहता था। अफसोस कि ऐसा कुछ न हो पाया! अफसोस कि मैं तुम्हें एकबार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और मैं अपना एक भी चुम्बन तुम्हारे दीवारों पर, अपने टेबल पर नहीं छोड़ सका। कहीं पढ़ा था कि प्रेम पूरा हो न हो लेकिन विदाई पूर्ण होनी चाहिए । तुमसे प्रेम तो मैंने भरपूर किया लेकिन विदाई अधूरी रह गयी। शायद जिंदगी की सफलता अधूरेपन में ही नसीब हो, ऐसा भी बहुत लोगों ने कहा है। जो पूरा हो जाये, वो उदासीन, निष्क्रिय और बेजान के सिवाय क्या ही हो सकता है!
तुमने क्या नहीं दिया मुझे? अपना सारा उद्गार और ममता तो तुमने पहले ही दिन फैला दिया था जब मुझे मेरे सीनियर्स ने अपना लिया। जब उन्होंने मुझे रैग करने के बदले अपना संरक्षण दिया। जब मेरे एक ही बार कहने पर बाबू ने कमरे में एक भैया को भेज करके रूम साफ करवा दिया। जब भी भूख लगे तो भोजन दिया। टहलने को सुंदर सा गार्डन दिया। पढ़ने को किताबें दी। निभाने को ट्रेडिशन दिया। बनाये रखने को लिगेसी दिया।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। मैं उस व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात नहीं कर रहा हूँ जो वेस्टर्न क्लासिकल लिबेरल्स ने दिया है बल्कि उस स्वतंत्रता की बात कर रहा हूँ जिससे गाँधी का मतलब था। जहाँ स्वतंत्रता हमेशा कर्तव्य और जवाबदेही से सुसज्जित होता है। तुमने मुझे बिल्कुल ही गाँधी जैसा स्वतंत्रता प्रदान किया। मैं पहली बार अपनी जिंदगी में ऐसी स्वतंत्रता का आनंद ले रहा था जहाँ मैं अपने जिंदगी को खुद आकार दे रहा था। उस स्वतंत्रता के बदौलत ही आज मैं यह कह सकता हूँ कि मैं अपनी जिंदगी का कर्ता स्वंय हूँ और मेरी सभी असफलता मेरे ही कर्म का परिणाम होगा।
मुझे याद है एकबार चौथी में एक कविता के अंत में एक प्रश्न था कि हम रात को क्यों सोते हैं जिसका जवाब था कि क्योंकि रात में अंधेरा हो जाता है और हमारे पास रौशनी नहीं होती है तो इसलिए हम सो जाते हैं। तब से लेके तुम्हारे यहाँ आने तक ये उत्तर मेरे जेहन में रचा-बसा हुआ था। लेकिन तुम्हारे यहाँ आने के बाद मैं रात और दिन को एक जैसा मानने लगा। मुझे पूरा का पूरा चौबीस घंटा दिखता था और रात और दिन के बारह-बारह का विभाजन हॉस्टल के चौबीस घंटे खुले दरवाजे से खत्म हो चुका था। उसी विभाजन की समाप्ति पर ही तो ये संभव था कि जब आसमान से चंद्रमा अपनी किरणें बिखेरता था तो मैं गंगा में पैर डालकर उस हवा का आनंद लेता था जिसकी पहुँच और जिसकी ठंडक शरीर के सीमित संरचना से भी ऊपर किसी अनन्त तक पहुँचता था। गंगा की वैसी बयार कहाँ ही मिल पायेगी, उस बनारस के घाटों के अलावे!
मैं कितना लिखूँगा तुम्हारे बारे में। तुम अनंत हो तुम असीमित हो और तुम अमर भी रहना। आज जब तुम्हारे बारे में लिख रहा हूँ तो तुम्हें कुछ बता भी देता हूँ। हाँ, आखिर के कुछ महीनों में तुमसे मन उचट गया था। तुमसे दूर जाना चाहता था। तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी स्वतंत्रता और सबकुछ जो तुमने मुझे दिया उसका मोल मेरा हृदय भूल गया था। शायद यही कारण हो कि मार्च में जाते वक्त मैं इस सबसे, सबकुछ से अनभिज्ञ था। मेरी एक दोस्त कहती थी कि हम जिससे प्रेम करते हैं उसके लिए हम सिक्सथ सेंस डेवेलप कर लेते हैं और इससे हमें पता चल जाता है कि वो क्या सोच रहा/रही है, वो कब परेशान है, वो कब दु:खी है और वो कब क्या कहने से छिपा रहा/रही है। उस वक़्त जाते वक्त यदि मुझे कुछ भी आभास न हुआ तो ज़रूर मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति कुछ तो था जो प्रेम में बाधक था। मैं प्रेम और सम्मान को समानार्थी मानता हूँ और हाँ मेरे मन में तुम्हारे प्रति सम्मान जितना पहले था वो अब और बढ़ चुका है।
मैं पिछले पैरा में ही तुम्हारे बारे में लिखना बंद करना चाहता था। देखो, शब्द अक्सर प्रेम को पूर्णरूपेण बयाँ नहीं कर पाता है। मैं ऐसे तो कोई उपमा नहीं देना चाहता था लेकिन मैंने कुछ लोगों की जिंदगी और उनके शब्दों में बेहद विश्वाश कायम किया हूँ। टैगोर के लिए शांतिनिकेतन उसकी जीवन की पूंजी थी और गाँधी शांतिनिकेतन को अपना दूसरा घर मानते थे। तुम मेरे टैगोर का शांतिनिकेतन हो और मेरे वो तीन कमरे जिसमें मैं रहा वो गाँधी के जैसे मेरा दूसरा, तीसरा और चौथा घर है जिसके दरवाजे सभी बच्चों के लिए खुले हैं।
तुम ऐसे ही अनंत काल तक बुलंद होकर खड़े रहना और अपने आँगन में आने वाले हर एक बच्चे को सुख-दुख-मोहब्बत-ज्ञान से मानवता के उच्च आदर्शों से सींच कर एक स्वतंत्र नागरिक बनाना।
तुम्हारा मेरे जीवन में आने के लिए बहुत आभार के साथ
तुम्हारा,
नीतीश।
Bhaiya❤️
ReplyDeleteHam itna attached hain ki agle saal rajaram ki khidakiyon se ise dekh liya karenge..roj
ReplyDeleteHam bhi aa rahen hain rajaram
DeleteBadhiya likha hai, indeed AND was a great place. It made me a humble human being. The cherishing memories of hostle will stick in our mind throughout our life. It was all together a character building experience.
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