भैया के रूम से निकल चुका हूँ। मैं नथिंगनेस में नहीं रह सकता हूँ। लता गुनगुना रही है। मैं मेट्रो में हूँ। सीधे रूम पर नहीं जाऊँगा। आज अकेले पहले खूब चलना है। कमरे पे मानव की 'अंतिमा' इंतज़ार कर रही है। सच बोलूँ तो मैं मानव की किताब के लिए भैया के रूम से पहले निकल गया। मुझे लगा कि मैं रविवार तक शायद ठीक न रहूँ। अभी भी शायद पूरा नहीं हूँ। ठीक होना किसे कहते हैं? किसी ने दो बहुत टफ सवाल पूछा था हमसे। पहला यह था कि तुमसे तुम्हारा सुकून छीन जाए लेकिन बदले में तुम्हें तुम्हारा सबसे इम्पोर्टेन्ट चीज़ मिल जाये तो क्या करोगे? मैंने कहा था उससे, "यदि वो मेरा सबसे इम्पोर्टेन्ट चीज़ होगा तो उसके मिल जाने से मेरा सुकून नहीं छीन सकता है या फिर मेरा सुकून वहाँ पर होगा ही नहीं।" आपको क्या लगता है?
दूसरा सवाल और भी कठिन था। लेकिन उसके हर एक सवाल का जवाब देना था हमें। सवाल कुछ यूँ था, "आप एक समय पे या तो खुश रह सकते हैं या सही? तुम क्या चुनोगे? खुश रहना या सही होना? मैंने कहा, "मैं एक समय पे खुश और सही दोनों रह सकता हूँ। पहली बार तो सही होना बहुत सब्जेक्टिव और काँटेस्टेड है। फिर भी यदि दोनों के बीच का चुनाव करना इनएविटेबल हो तो मैं सही होना चुनूँगा। सही होना हमें अपने अंदर एक सैटिस्फैक्शन देता है। सही का चुनाव करना भले ही हमें तत्काल दुख दे सकता है लेकिन लांग टर्म में खुशी देने की क्षमता उसमें ज्यादा है।" इस सवाल का जवाब आसान नहीं था। मैं अपने सीमित दायरे में यही कहा उससे। मुझे नहीं पता कि उसने क्या चुना? उसका सही और गलत का परिभाषा क्या थी? चुनाव करना आसान नहीं होता है और रिश्ते कभी खत्म नहीं होते लेकिन अलगाव का रास्ता सबसे खूबसूरत होता है।
मैं राजीव चौक पर उतर कर कनॉट प्लेस आ गया। सेंट्रल पार्क में बैठा हूँ। ऐसा लगता है कि यहाँ का तिरंगा सबसे बड़ा है। लोग बेहद खुश लगते हैं यहाँ। मैं अपना मास्क नीचे उतार देता हूँ। अच्छी हवा है यहाँ। जेएनयू में शाम को टहलते वक़्त एक बेहद ही अच्छी खुशबू आती है। वो खुशबू तो नहीं है यहाँ। मुझे ऐसा लगता है कि अकेले में अच्छा समय बिताने के लिए कुछ तो ऐसा आपके पास होना चाहिए जिसपे आपको फक्र हो। मैं यहाँ घास पर लेटकर आसमान को निहारना चाहता हूँ। मैं घास पर लेट जाता हूँ और बिल्कुल वैसा ही करता हूँ, जैसा सोचा था...आधा चाँद को देखकर अच्छा लग रहा है..भैया के रूम से निकलते वक्त उन्होंने यह गीत सुनाया..
कल नई कोपलें फूटेंगी
कल नए फूल मुस्काएँगे
और नई घास के नये फर्श पर
नये पाँव इठलाएँगे
वो मेरे बीच नहीं आए..
वो मेरे बीच मे नहीं आए..
मैं उनके बीच में क्यों आऊँ?
उनकी सुबहों और शामों का
मैं एक भी लम्हा क्यों पाऊँ?
मैं पल दो पल का....
बस दद्दा बस.... अब रूम जा कर खाना खाओ अच्छे से
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