रात के करीब दो बजने वाले हैं। कितने महीने हो गए और कुछ लिखा ही नहीं। जेएनयू कभी भी वैसा मिला ही नहीं जैसा सोचा था। सारे रास्ते खुद चलने पड़े। सब कुछ अकेले ही करना पड़ा। डर, दुख, पीड़ा, और विचलन। प्रेम की बनावट ऐसे बनी की बनी रह गई जैसे सब केवल झूठ और छल था। बस इतना ही कह सकते हैं, इंसान एक बेहद ही कॉम्प्लेक्स चीज है। अच्छाई और बुराई से परे वो अपनी सीमित व असीमित के साथ बंधा है।
आज कई तीन वर्षो के बाद अपने बीएचयू के रूममेट से मिला। हमारे बीच हमेशा एक खामोशी रहती थी। वो हमेशा कहता था कि "साइलेंस इज द बेस्ट कनवरसेशन।" आज पूरे दिन की मुलाकात में मुश्किल से केवल सौ सेंटेंस भी हमलोगो ने एक दूसरे से नहीं बोला। लेकिन सब कुछ रिफ्रेशिंग था।
हम किसी भी सोच के कितने तह तक जा सकते हैं? मेरी लिखावट को मैं तब ही सफल मानता हूं जब मैं बिना कुछ छिपाए सब कुछ लिख दूं। आज तक कभी भी ऐसा हुआ ही नही। इसलिए यह सारी लेखनी एक बकवास है। फिजूल का काम।
( आज एक दोस्त ने अपने स्टेटस पर यह तस्वीर लगाई थी। ऐसा लगता है कि इसके आंखों में कितने सवाल हैं जिसका शायद ही कोई जवाब इसे मिला हो )
बालकनी में बैठा हूं। दूर से कहीं कुत्ते की बात चीत करने की आवाज आ रही है। कुत्ते को 'भौंकना' कहना नहीं चाहिए। कोई चिड़िया भी चहचहा रही है। शायद उल्लू होगा। रात में जगने वाली और किसी दूसरी पक्षी का नाम भी तो नहीं पता है। ज्ञान के सीमित पहुंच ने कितनी बड़ी आबादी को अब भी अपना गुलाम बना रखा है।
पिछले दिनों प्रदीपिका से मिला। कई महीनों से मिलने की कोशिश के बाद अंतत जब मुलाकात हुई तो शायद ही मेरे पास कहने को कुछ था। मुझे पता था कि ये तो होगा ही मेरे साथ। कोरोना के दौरान ब्रेकडाउन होने के बाद यदि उनके लिखे ब्लॉग्स नहीं होते तो शायद ही उससे उबरना उतना आसान होता। एक एक शब्द पढ़ते हुए छाती में धंस जाते थे। कई चीजें कहना चाहता था लेकिन सब वैसे ही रह गए जैसे वो वहां से निकलना ही नही चाहता हो।
पहले मेरी कविता छूट गयी। अब ऐसा लग रहा है कि यह ब्लॉग भी छूटता जा रहा है। मास्टर के दिनों का जैसा ना ही डर है, ना ही दुख, और ना ही पीड़ा। सब सामान्य सा लगता है। क्या दुनिया के सारे महान लेखक बैचेनी में ही लिखा करते थे? क्या सामान्य इंसान लिख नहीं सकता है?
पहले लिखने के बाद बिलकुल भी झिझक नहीं होती थी कि पब्लिश करके शेयर कर दूं। अब वो सब झिझक है। कविताओं की कितनी ही पंक्तियां पहले ही पर रुक जाती है। मोबाइल बंद करके द्वंद अंदर ही चलने लगते हैं। शब्द फिर से असफल रहता है।
दूर से कहीं एंबुलेंस की आवाज आ रही है। पार्क का हाई हाइट लाइट पूरे दिन जलते रहती है। कमरे के दरवाजे पर से बिरसा के बगल की चे की तस्वीर उखड़ गई। क्या दुनिया के अलग अलग समय के महान इंसानों के बीच आज के कंटेक्स्ट में एक डायलॉग और संवाद स्थापित नहीं किया जा सकता है? यदि बिरसा होते तो वो चे से कैसे बात करते?
आज कुछ ठीक नहीं लग रहा है। शायद अब भी सब अधूरा है। पूरा अधूरा।
15/08/2023
दिल्ली।
Comments
Post a Comment