कुछ लिखने की कोशिश में हमेशा बहुत कुछ छूट जाता है। आज कृष्णामूर्ति को पढ़ रहा था। कृष्णामूर्ति की ट्रेनिंग ऐनी बेसेंट के अंदर हुई थी और बेसेंट चाहती थी कि आगे चलकर कृष्णामूर्ति थियोसोफिकल सोसाइटी को आगे बढ़ाएंगे। कृष्णामूर्ति ऐसा कुछ नहीं करते हैं और वो खुद को दुनिया के हर एक आइडियाज, धर्म से अलग कर देते हैं। कृष्णामूर्ति अच्छा लिखते हैं। मैंने उनकी एक किताब 'दी फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम' लॉकडाउन में पढ़ा था। मुझे एक बहुत बड़े सवाल का जवाब मिला था। मुझे हमेशा से इंडिविजुअल और सोसाइटी के बीच संबंध के सवाल परेशान करते थे। मैं हमेशा सोचता था कि किसे ज्यादा इम्पोर्टेंस दिया जाना चाहिए, इंडिविजुअल या सोसाइटी को? सोसाइटी आखिर है क्या? सोसाइटी तो कहीं दिखता नहीं है फिर ये इंडिविजुअल के एम्बिशन्स पर इतना हावी क्यों है? 'इंटू दी वाइल्ड' मूवी में नायक एक बार फ्रस्टेट होके कहता है, "सोसाइटी, सोसाइटी, सोसाइटी" !
कृष्णामूर्ति कहते हैं कि सोसाइटी इज नॉन-एक्सिस्टन्ट। सोसाइटी इज अ प्रोडक्ट ऑफ इंडिविजुअल रिलेशनशिप्स। हम एक व्यक्ति हैं और हम दूसरे व्यक्ति के साथ कैसा रिश्ता बनाते हैं और उस रिश्ते की बुनियाद ही सोसाइटी के नॉर्म्स बन जाते हैं। मानकर चलिए, हम आपसे किसी पार्क में मिलते हैं और हम आपसे बहुत अच्छे से मिलते हैं, खुशी से बात करते हैं, कोई झूठ-फरेब नहीं रखते हैं, प्यार-स्नेह से बातें होती हैं, तो ये हमारे रिश्ते की बुनियाद है और यही रिश्ता यदि हम तुम्हारे साथ और कोई हमारे साथ और सब सबके साथ रखता है तो यही सब ना एक नॉन-एक्सिअटेंट में सोसाइटी बन जाता है। यदि यह झूठ पर होगा, द्वेष, ईर्ष्या, ग्लानि, धोखा पर हो, तो सोसाइटी भी वही होगा।
मुझे कृष्णामूर्ति को पढ़कर समझ आ गया कि हमें ये बदलने की ज़रूरत है जब हम बोलते हैं कि मुझे इस समाज को बदलना है। नहीं, मुझे खुद को बदलना है। इस देश-समाज में जितना भी झूठ-फरेब-करप्शन दिख रहा है, वो हमारे अंदर की ही बुराइयों का विशालकाय स्वरूप है। राजनीति में दिखने वाली बुराई हमारे ही बुराई है। मोदी-शाह हमारे अंदर ही कहीं हैं। शांत होकर कुछ देर सोचिए, उनकी बहुत सारी आदतें जिसे आप कोसते हैं वो सब हमारे अंदर हैं, कहीं न कहीं। मेरे अंदर भी है, मुझे पता है।
आज थोड़ा लंबा लिखने का मन कर रहा है। मैं रूम से निकलकर पार्क आ गया हूँ। लॉक डाउन में प्रदीपिका को बेहद पढ़ा था। सोशल मीडिया से दूरी है। सेप्टेम्बर में ही फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर सब डिलीट कर दिया। कुछ समय खुद में बिताना ज़रूरी लगा था। सोशल मीडिया पर फरेब और एडिक्शन के सिवाय कुछ नहीं है। सोशल मीडिया के पीछे मकसद यह था कि लोग उसे एक माध्यम बनाएं, रियल में इंटरैक्ट करने के लिए। मान कर चलिए, यदि हम एक ग्रुप बना रहे हैं तो उस ग्रुप के लोग केवल वहीं वर्चुअल प्लेटफार्म पर ही न रहें बल्कि वहाँ से निकलकर रियल में भी मिलें। उस मीडियम पर वैसा कभी भी मेरे साथ कुछ न हुआ। फेसबुक पर मेरे जितने भी नए दोस्त थे मैं कभी भी उनसे रियल में नहीं मिला। क्या ही मतलब ऐसे मीडियम का।
मैं प्रदीपिका के ब्लॉग को लगातार चेक करता हूँ। उन्होंने अपने ब्लॉग पे आखिरी बार जून में लिखा था। वो निकोलाई गोगोल का एक पत्र का अनुवाद था, जिसमें निकोलाई स्त्रियों को संबोधित करके बहुत कुछ लिखते हैं। उसके बाद से प्रदीपिका का लिखा कुछ नहीं पढ़ा। जी करता है कि उनकी लिखी किताब, 'गर फ़िरदौस' मंगा करके पढूँ। लेकिन नहीं पढूँगा। प्रदीपिका अभी और लीखेंगी। उन्हें और लिखना है। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता है कि उनके किताब को पढ़कर किताब की तारीफ़ करते हुए उन्हें मेल भेजूँ। प्रदीपिका और मानव दोनों बेहद अजीज हैं मेरे।
आज मैं पार्क में बैठकर बस यही सोच रहा हूँ कि शायद जिंदगी भर लग जाये लेकिन क्या मैं अपने अंदर के पितृसत्तात्मक सोच को जड़ से कभी मिटा पाऊँगा? मुझे हमेशा लगता है कि अपने आसपास एक स्त्री का होना बेहद आवश्यक होता है। वो हमारे अंदर के सारे वायलेंस और बुराई को न्यूट्रल रखती है। हर महीने एक स्त्री का लिखा लिखा कुछ न कुछ पढ़ना चाहिए। इसी से मुझे ख्याल आया है कि सिमोन दी बोउवेर की, 'अ वेरी इजी डेथ' मँगा लूँ। जब आखिरी बार गरीमा का 'देह ही देश' पढ़ा था तो उसने मुझे बहुत स्नेह और आत्मीय इंसान बनाया( ऐसा केवल मुझे लगता है)। कितना डीपली एम्बेडेड हैं हम पितृसत्ता के इस जहरीले जहर में। दिल्ली की दूसरी लड़ाई इसी से लड़नी है।
1. मोदी - शाह का खुद में छिपा होने के क्या मायने हैं??
ReplyDeleteमतलब मोदी-शाह हम ही हैं। वो हमसे अलग नहीं हैं। उनका सब कुछ हमारा है।
Deleteनीतीश , जरूरी नहीं की न्यूट्रलिटी बनाये रखने के लिए स्त्री का होना जरूरी है । स्त्री एक पक्ष है ...हर पुरुष में वो पक्ष होना चाहिए । पुरुष में स्त्री का वो पक्ष आ गया तो सम्पूर्णता की ओर बढ़ सकतें हैं ।
ReplyDeleteBahut Achha likhe h bhaiya 🙏🙏
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