वॉकिंग इन दिल्ली : फोर

अब लाइब्रेरी से जाने का वक़्त आ गया है। मैंने अपने पुराने मेल्स चेक किये और पिछले साल मार्च के एक मेल को खोला। साहिर की नज्मों का लिंक्स था उसमें। उसका कोई रिप्लाई नहीं आया था। 'इसी दोराहे पर' नज्म को पढ़ने लगता हूँ। 

"और ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाजा खुला भी तो पलट जाऊँगा।" 

साहिर इस नज्म में कुछ सहमे से लगते हैं। कुछ परेशान से। कुछ डरे हुए। मैं माउस को बैक पर ले जाकर क्लिक करता हूँ। अगली नज़्म खुलती है, "खूबसूरत मोड़।" साहिर की ये नज़्म मेरी सबसे पसंदीदा नज्मों में से एक है। 

"तआरुफ रोग बन जाये तो उसको भूलना बेहतर
तआलुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा।"

मेरी नजर पेज की आखिरी नज्म पर पड़ती है।

रात सुनसान थी, बोझल थी फजा की सांसें
रूह पे छाये थे बेनाम ग़मों के साये
दिल को ये ज़िद थी कि तू आए तसल्ली देने
मेरी कोशिश थी कि कमबख्त को नींद आ जाये

देर तक आंखों में चुभती रही तारों की चमक
देर तक जहन सुलगता रहा तन्हाई में
अपने ठुकराए हुए दोस्त की पुरसिश के लिए
तू न आई मगर इस रात की पहनाई में...

साहिर को पढ़कर जी करता है यूँ ही स्क्रॉल करके उन्हें पढ़ता रहूँ। मैं हमेशा ऐसी लेखिकाओं को खोजता हूँ जो अपने प्रेम से उपजे दर्द और सबकुछ को बिल्कुल वैसे ही बयाँ कर दे जैसे एक पुरुष करता है। प्रेम दोनों करते हैं लेकिन लिखना अधिकतर पुरुष के हाथों में आता है।

मैं स्क्रॉल करते हुए दूसरे मेल पर आ जाता हूँ। इसमें 'मैरी ओलिवर' की कविताओं का लिंक्स है। 

"जिसे कभी प्रेम करती थी
उसने मुझे दिया
अंधकार से भरा एक बक्सा

वर्षों लग गए
मुझे यह समझ पाने में
कि यह भी एक उपहार था।"

आजकल सोच रहा हूँ कि एकेडेमिक्स का पढ़ते वक्त हमेशा थोड़ा बहुत साहित्य साथ मे रखूँ। आज कविताओं में केवल पंद्रह मिनट बिताया लेकिन पढ़ कर लिखने से शायद आज नींद अच्छे से आये। 

दिल्ली में कुछ अच्छी पुस्तक की दुकान को ढूंढना चाहता हूँ जहाँ पर जाकर कभी पढ़ा जा सके। कल रात अचानक 'धुंध से उठती धुन' की याद आ गयी और फिर निर्मल वर्मा। उस किताब को लेकर मैं पिछले साल जनवरी में इलाहाबाद घूमने गया था। मैं गया था अकेले लेकिन हमेशा लगा कि कोई मेरे साथ है। किसी का साथ है उस किताब के ज़रिए उस सफर में। निर्मल वर्मा की एक और किताब 'चीड़ों में चाँदनी' पर दिल आ गया है। पेपर खत्म होते ही दिल्ली में किसी किताब की दुकान से इसे खरीद कर लाऊँगा। मैंने कभी अपनी एक कविता में लिखा था,
"मैं तुम्हें पढ़कर सुनाऊँगा 
तुम्हारे पसंदीदा लेखक की किताब
शहर की इकलौते किताब की दुकान से लाकर..."

प्रदीपिका के ब्लॉग में पढ़ा था कि बुकोवोस्की लिखते हैं कि यदि तुम बिना लिखे जिंदा रह सकते तो लिखना छोड़ दो।

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