वॉकिंग इन दिल्ली: फाइव

आज कॉफ़ी पीने का मन हुआ। चाय पीने वालों के लिए कॉफ़ी पीना बेहद अनकॉम्फोरटेबल प्रोसेस है जिसमें एक पक्का दोस्त को छोड़कर आप कुछ नया टेस्ट करते हैं, दरअसल पता होता है कि वापस वहीं लौटना है। चाय यदि अभिव्यक्त कर पाती तो उसकी तकलीफ से अवश्य ही वापस लौटने की प्रक्रिया और भी तेज हो जाती। ऊपर से आज जब कॉफ़ी बनाने गया तो मैं कॉंफिडेंट था कि मैं अच्छी कॉफ़ी बना लूंगा लेकिन सब ख़राब हो गया। मैं इतना निजी बनाकर पीना चाहता था कि लाइब्रेरी जाते हुए रूममेट को पूछा तक नहीं। कॉफ़ी फट सी गयी। यूट्यूब को पाँच मिनट के लिए फोकस मोड से हटाया और कॉफ़ी बनाने की तरकीब को सीखना चाहा लेकिन तब तक पासा पलट चुका था। अब चाय की ओर लौटने का उपाय ही शेष था। बचे दूध में पत्ती मिलाया और चीनी डालकर गैस की लौ को कम कर दिया। पापा हमेशा बोलते थे कि चाय तब ही अच्छी बनती है जब आप उसे सब्जी की तरह सिझायें( पकाना)। बढ़िया चाय बनाने के लिए मैं हमेशा यही तरीका अपनाता हूँ। चाय में पत्ती और चीनी दोनों ज्यादा हो गयी थी जिससे थोड़ा करुवापन आ गया था, शायद यह चाय को छोड़कर जाने से उपजे तकलीफ का परिणाम था। मैंने कमरे का गेट लगा दिया और 'आपकी याद आती रही रात भर' को फुल वॉल्यूम में सुनते हुए सामने की दीवार पर देखने लगा।
कल आखिरी एग्जाम है। पूरा मन बना लिया हूँ कि निर्मल वर्मा की 'चीड़ों में चाँदनी' खोज कर लाऊंगा। फिर सुकून से चाय के साथ बैठकर पढूँगा। घर से आते वक्त सारा लिटरेचर एक कार्टून में बंद करके रख दिया था। केवल पाश और दिनकर का कुरुक्षेत्र साथ ले लिया था। अपने बैचलर के दिनों से जब से कुरुक्षेत्र से परिचय हुआ तब से कुरुक्षेत्र को मैं हमेशा अपने साथ रखता था। रूममेट की इकलौती बुक थी जिसे मैंने उसे बिना बताए अपने पास रख लिया था। उसे शायद अब भी पता नहीं हो कि कुरुक्षेत्र कहाँ गया। पुस्तक का खोना या किसी के पास छूट जाना....क्या हो सकता है यहाँ? एकबार यह लिख कर मिटाया कि सबसे खूबसूरत अलगाव, एकबार यह लिख कर मिटाया की सबसे खूबसूरत प्रक्रिया। शायद दोनों सही शब्द चुनाव नहीं है। कुछ तो है। अगली बार के लिए छोड़ देते हैं इसे। 

आज बेहद दिनों बाद प्रदीपिका का कुछ लिखा पढ़ा। जानकी पुल पर उनकी डायरी का अंश पढ़ने को मिला। वो कह रही थी कि हम अनाप-शनाप क्यों नहीं लिखते हैं? अल्मोड़ा में फूलदेई त्योहार का जिक्र कर रही थीं। जहाँ बच्चे सुबह-सुबह सबके घर में फूल देते हैं और बदले में उन्हें चावल और गुड़ मिलता है और फिर वो सारे चावल गुड़ को इकट्ठा करके शाम में उसे पकाते हैं और खाते हैं। हम जब अपने बचपन मे पिकनिक मनाते थे तो कोई पैसे नहीं देता था। सब अपने घर से सामान लाते थे। कोई तेल, कोई चावल, कोई जलावन और किसी के बाड़ी से गोभी तोड़ लेते थे तो किसी के बाड़ी से धनिया और किसी के बाड़ी से लहसून। किसी के गाय या भैंस से दूध निकाल लाते थे। सब ऐसे ही हो जाता था। हम फिर चाव से बनाकर खाते थे। 

हम बहुत बड़े कल्चरल चेंज के हिस्सा हैं। हम इसे समझ भी नहीं पा रहे हैं और बहुत कम रेजिस्टेंस के साथ हम इसे अपना चुके हैं। 

15.03.2021

Comments

  1. बहुत बढ़िया आलेख❤️

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  2. मुझे मालूम था कि 'कुरुक्षेत्र' किसके पास है? लेकिन आपने उसे इस 'शिद्दत' और 'प्यार' से अपने पास रखा था कि मैं चाहकर भी कुछ नहीं बोल पाया.❣️

    उस पुस्तक से मुताल्लिक़ मेरी यही ख़्वाहिश है कि उसके पहले पन्ने पर आप दो पंक्तियाँ लिख दीजिए:

    'मेहरबाँ होके बुला लो मुझे, चाहो जिस वक़्त,
    मैं गया वक़्त नहीं हूं, कि फिर आ भी न सकूँ'
    ~मिर्ज़ा ग़ालिब

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