दिल्ली डायरीज: सिक्स्थ

यह तीसरी होली है जिसे मैं बेहद अकेले और बिल्कुल अकेले बिता रहा हूँ। आज पूरे दिन किसी से नहीं मिला। यदि कॉल का कहूँ तो वो भी शायद एक दो लोगों के अलावे किसी का नहीं आया। पापा से, दीदी से और रूममेट से। मैं कभी-कभी स्मृतियों को याद करना चाहता हूँ तो मैं अपने आंखों को बंद करके एक यात्रा करता हूँ। मैं जब एलेवेंथ करने अपने घर से निकला था। अपने बगल के शहर में। पूर्णिया। मैं उन कुछ लड़कों को और उन कुछ लड़कियों को याद करना चाहता था जिसकी स्मृतियाँ बिल्कुल धुंधली होती जा रही है। एक लड़का वो था जिसके कमरे का दरवाजा सीधे सड़क पर खुलता था। जिसके कमरे का फर्श उस सड़क से लगभग एक फ़ीट नीचे था। शाम का वक़्त था। बेहद उमस था उसके कमरे में। मैं उसका चेहरा बिल्कुल भी याद नहीं कर पा रहा हूँ। मैं क्या बात कर रहा था उससे? वो भी बिल्कुल याद नहीं है। इकोनॉमिक्स क्लास का वो आखिरी दिन जब कोचिंग से बाहर निकलते वक्त उस घुंघराले बाल वाली लड़की ने जब अपनी दोस्त से मुझे कहलवाया था कि नीतीश! 'नाम' को तुमसे डर लगता है। मुझे उसका नाम भी बिल्कुल याद नहीं है। थोड़ा बहुत चेहरे को यदि याद करना चाहता हूँ तो केवल उसके घुंघराले बाल याद आते हैं। मैं हमेशा उसे डिटेस्ट से देखता था क्योंकि वो श्यामली थी। मैं खुद पे शर्म करता हूँ। मैं कितना बेकार हूँ। शायद अभी भी। कॉलॉरिसम कास्ट से ज्यादा डीपली एम्बेडेड है मुझमें। एकबार पीछे मुड़कर रूककर उसे रोक लेता और बोल देता कि तुम आज बहुत अच्छा गायी थी। वो गाना क्या था ? हाँ, मुझे याद आ गया है। वो अनामिका फ़िल्म का गाना था। किशोर कुमार की आवाज में, 'मेरी भीगी-भीगी से' मजरूह सुल्तानपुरी का लिरिक्स और बर्मन साहब का संगीत।

 ...तुझे बिना जाने बिन पहचाने मैंने हृदय से लगाया...।
 
कितनी खूबसूरत पंक्ति है यह। मैंने गाने को रिपीट मोड में लगा दिया है। मैथ्स कोचिंग की वो लड़की जिसका मैं नाम तक नहीं जानता था। केवल कुछ दिन ही देख पाया था उसे। कभी-कभी लगता है अच्छा होता है कि उन सबसे बिना कोई बात किये निकल लिया। जिनसे बात नहीं करते हैं उनसे बात कर लेने की अभिलाषा हमेशा बची रहती है। मैं चाहता था कि मैं अपनी ज़िंदगी में उन सब लोगों से हमेशा टच में रहूँगा जिनसे कभी एक बार भी मिला हूँ। ऐसा भी बिल्कुल नहीं हो पाता है। 

आज निर्मल वर्मा की 'चीड़ों में चाँदनी' पढ़ना शुरू किया। एक सप्ताह से इंतज़ार कर रहा था कि फुरसत से पढूँगा। आज वो दिन आ गया। मैं सुबह-सुबह खुद को खुश करने के लिए एक बेहद फालतू सी पंक्ति सोच लिया कि 'आई एम प्लेइंग होली विथ मय सोलिट्यूड ऑफ ब्लेंक कलर्स'। बेहद बचकाना है। इवन वाहियात भी। लेकिन आज पूरे दिन यही हुआ। निर्मल वर्मा के साथ आइसलैंड, प्राग घूम रहा था। शिकागो ट्रायल देखा और फिर रात में लिख रहा हूँ। 

निर्मल वर्मा लिखते हैं कि "सुख का अभाव कभी दुख का कारण नहीं बनता, उल्टे एक नए, अपरिचित सुख को जन्म देता है।" इस पंक्ति को पढ़ते-पढ़ते सो गया। नींद खुली तो देखा फोन बज रहा है। जेएनयू के दोस्त ने कहा कि लाइब्रेरी को बंद कर दिया गया है। एक पल के लिए सोचा अब क्या होगा...फिर सोचा कि नहीं कल तो खुल ही जाएगी। आजकल लाइब्रेरी के बिना सब अशांत रहता है। 

29/03/2021

Comments

  1. कभी कभी अनजाने जितने ख़ुशी के पल दे जाते है उनको जिंदगी भर यादो मे समेटना ही शानदार अहसास होता है... मस्त👍🙏🏻

    ReplyDelete
  2. जीवन में कुछ अजनबी लोग और कुछ गुजरे पल अक्सर यादों में लौटने पर हमारे होठों को एक थिरकन दे जाते हैं..💗💗

    ReplyDelete

Post a Comment