आज शायद थोड़ा पहले लिख रहा हूँ। अक्सर तीन बजे के बाद लिखता था लेकिन इस बार तीन बजने में अभी फोर्टीन मिनट बाकी हैं। अब थर्टीन। मैं अभी अभी सोच रहा था कि हमारी जिंदगी तब कितनी मुश्किल हो सकती है न जब हम केवल खुद के किये जीना चाहते हैं। ऐसे कितने ही लोग हैं जो एक बड़े कॉज को लड़ते-लड़ते खुद के इनडीवीलुएस्टिक पेन को भूल जाते हैं। मैं बिल्कुल ये नहीं बोल रहा हूँ कि इस प्रोसेस में खुद के इनर सेल्फ को भूल जाना है। बिल्कुल नहीं। हेगेल ने जैसा कुछ कहा है। पूरी तरह से नहीं बस एक टुकड़ा ले रहा हूँ मैं उससे। मिक्स योर सब्जेक्टिविटी विथ दी ऑब्जेक्टिविटी। हम अपने अंदर की खूबियों को एक बड़े मुकाम तक पहुंचा सकते हैं। जैसे या हम इनर सेल्फ के लिए लड़ सकते हैं। स्टेट से। उसकी मशीनरी से। हम इनर सेल्फ के लिए किसी सड़क पर नारे लगाते हैं। खैर, छोड़ते हैं, इट्स टू मच इंटेलेक्चुअलिज्म।
मेरे कमरे में कोई खिड़की नहीं है जो बाहर की तरफ खुले। केवल एक वेंटिलेटर है। मैं लिखते लिखते रुकता हूँ और उस वेंटिलेटर की तरफ देखता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मैं वेंटिलेटर को देखते हुए अपनी नज़र बिना झुकाए कुछ लिखूँ। क्या कुछ भी सही लिख पाऊँगा? हज्जे नहीं कगत हूं ये बहु समझबह्य हूं। देखा मुझे लग ही रहा था कि ये संभव नहीं है। लेकिन एक बात तो है पूर्ण विराम बिल्कुल वही लिखा जहाँ लिखना चाहता था। मैं कब ऐसे लिखना चाहता था। शायद कभी नहीं। नहीं अभी चाहता हूँ। मैंने अपनी आखिरी कविता शायद जिसे मैं मानता हूँ कि वो कविता है, अपने बैचलर के दिनों में लिखा था। बस उस कविता को लिखते वक्त मुझे खुद पे शर्म आ रही थी। मैं रोया था। बिहार के मुजफ्फरपुर में बहुत बच्चों की मौत हो रही थी। स्टेट ये बता रही थी कि खाली पेट लीची खाने से हुआ है। दरअसल वो सारे बच्चे कुपोषण के शिकार थे और वो खाने की कमी से मरे थे। वो वहाँ दोबारा हुआ था। मैं बिहार में था। शायद वहाँ से बहुत दूर था। मैंने कविता लिख कर फेसबुक पर रख दिया। करीब आठ लोगों ने शेयर किया और कुछ लोगों ने लाइक्स दिया होगा और कुछ कमेंट। उस कविता की आखिरी पंक्ति थी कि लेकिन राज्य प्रायोजित हत्या के लिए राज्य को कितनी सजा मिलनी चाहिए? उस कविता को लिखते वक्त ही मुझे गिल्ट जैसा महसूस हो रहा था। वो डिनायल था। मेरी बेशर्मी थी कि मैं उसे लिखना चाहता था लेकिन फिर भी न जाने क्यों मैं लिख रहा था। बस उसके बाद कविता से एक डिस्ट्रस्ट आ गया। उस वक़्त नहीं जानता था लेकिन जैसा नीत्शे ने लिखा है, “I honor a philosopher only if he is able to be an example.” मुझे खुद के लिए इसलिए अच्छा नहीं लग रहा था क्योंकि शायद मैं खुद अपने लिखे के लिए कुछ नहीं कर रहा था। मुझे लगा कि मैं फ्रॉड हूँ। और फिर शायद ही कभी दोबारा मैं कोई कविता लिखा हूँगा। कई बार बेहद जबरदस्त फील आया कि लिखूं लेकिन मोबाइल के लॉक खोलते ही सब बन्द हो जाता है। यदि एक दो लाइन लिख भी दूँ तो कभी पब्लिश तो बिल्कुल भी नहीं किया। हम मोशन में हैं। हमारा शायद कुछ भी स्थिर नहीं है। विचार तो सबसे ज्यादा गतिशील है। शायद कभी बदल जाये। शायद बदल रहा हो। लेकिन अभी तक के लिये तो बिल्कुल वही, यदि मानव के शब्दों में कहूँ तो 'ओ मेरी कविता, तुम खो सी गयी हो, तुम..." लेकिन क्या मैं तुम्हें मिस कर रहा हूँ? कौन किसे मिस नहीं करता, कविता!
तीन बजकर तेरह मिनेट हो चुके हैं। सार्त्र का 'nausea' मजेदार है। अभी बस इंट्रो पढ़ा हूँ। जिसमें लिखा था "..and Sartre has said that genius is what a man invents when he is looking for a way out."
16/05/2021
Every lie we tell incurs debt to the truth...Sooner or later the debt is paid.
ReplyDeleteNeetish, I will recommend you to watch Chernobyl . It's web series by HBO based on Nuclear disaster of Chernobyl. If u haven't watched it till now , do watch . This series shows how state denies truth which ultimately cost life of peoples...Or life of Generations, may be.
ReplyDeleteHello Teen Panne,
DeleteThanks for recommendation and I have watched it. And what u said, is also right.
बेहतरीन लिखे हैं।
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