शाम के सात बजने वाले हैं और अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है। गाँव मे अब तक अंधेरा हो चुका हुआ होगा। माँ राख से बर्तन चमका चुका होगी। और फिर चापाकल के बेहद ठंडे और मीठे पानी से चाय बनाने के लिए चूल्हा फूंक रही होंगी। गैस खत्म हो चुका होगा। अक्सर गैस खत्म होने के तुरंत बाद गैस नहीं आता है। दीदी टहल रही होंगी। पापा दरवाजे पर बैठकर पंखा झल रहे होंगे या सब्जी की बाड़ी में रात के लिए ताजी सब्जी तोड़ रहे होंगे। कल पापा और दीदी दोनो से बहस हो गयी और फिर तब से बात नहीं किया हूँ। पिछले पाँच साल में शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब पापा या दीदी में से किन्हीं एक का कॉल न आया हो। जेएनयू में जहाँ बैठा हूँ, उस जगह पे चार महीने बाद आया हूँ। लूटेरा का मनमर्ज़ीयाँ रिपीट मूड में है। सीने में एक अलग बैचेनी सी है। गाँव के चापाकल से निकला ठंडा पानी पीने का मन कर रहा है। दिल्ली में पानी भी सुकून का नहीं है। शुकर इस बात की है कि जहाँ बैठा हूँ वहाँ सूर्यास्त की दिशा की ओर से बहुत ठंडी हवा चल रही है। हर पाँच मिनट में सर के ऊपर से एक प्लेन निकल जाती है। कल एक दोस्त बोल रहा था कि एक दिन हम केवल इसी से चलेंगे। सुबह पापा से इसी पर बहस हुई है। दीदी बोलती है लोग क्या कहेंगे? पाँच सेंटेंस बोलने के बाद कॉल ही काट दिया।
सूर्यास्त हो गया। क्या केवल सूरज डूब जाने को दिन का खत्म होना कह सकते हैं? शायद संध्या कहना ज्यादा उचित है। मतलब सूरज के डूबने के बाद जब तक हमें यह दुनिया दिखता रहे तब तक को संध्या कहना चाहिए। शायद होता भी यही हो। कोयल भी मेरी बातों में सहमति दर्ज कराने के लिए कू-कू कर रही है।
कितना अनाप-शनाप लिखते हैं हम? मैं ऐसे लेखक का एक गिल्ड बनाना चाहता हूँ जो अनाप-शनाप लिखे। हाय! कोयल। एकदम जोर-जोर से कू-कू कर रही है। गाने को रिपीट मूड से हटाकर फ्री कर दिया तो कविता सेठ 'मुद्दत हुई है यार को' गुनगुनाने लगी। बेतरतीब लेखन की बात कर रहा हूँ। जहाँ ऐसी बातों पर लिखा जाय, जो बेहद सामान्य बन चुका है। उठकर रूम पर वापस जाने लगा हूँ। बंद पड़े गंगा ढाबा के आसपास लंबी-लंबी घास हो चुकी है। करीब हमारे घुटने तक। बैठने वाले पत्थर हरी हरी घास से घिरता जा रहा है। मैं अब भी सबकुछ एज्यूम करता हूँ जो कुछ भी इस ढाबा से जुड़ा है।
22/06/2021
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