दिल्ली डायरीज: थर्टींथ एंट्री


रात के दस बजकर सत्रह मिनट हो चुके हैं। सड़क किनारे बेंच पर बैठा हूँ। सामने सड़क से लोग-गाड़ियाँ आ जा रहे हैं। लोगों का एक झुंड अभी-अभी टेफलास से निकला है। सड़क किनारे सब खड़े हैं और सब डिसाइड कर रहे हैं कि कहाँ जाएं। सभी लोग दृष्टिबाधित हैं। सभी ने किसी न किसी का हाथ ज़रूर पकड़ा है। सब खुश हैं। शायद पार्टी थी। लेकिन किस चीज़ की होगी? किसी का जन्मदिन हो सकता है? या किसी को नॉकरी लगी होगी? या ऐसे ही पार्टी कर रहे होंगे? अच्छा खाने के लिए जेएनयू में टेफ्लास है या मुग़ल या थोड़ा बहुत अरावली? और भी हो सकता है। सात महीने हो गए मुझे दिल्ली आने का। वो लोग ऑटो बुलाकर लाये हैं। सब चले जायेंगे अब। क्या मुझे भी जाना चाहिये? फरीद खानुम गा रही है, "वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया।" नहीं सब के सब नहीं गए हैं। आधा हिस्सा यहीं है। लेकिन अब वो लोग निकल रहे हैं। सभी लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़के सड़क क्रॉस कर रहे हैं। मनुष्य को कभी भी कम्पलीट सेल्फ-डिपेंडेंट नहीं होना चाहिए। अकेलेपन से मर सकता है वह। आजकल के लेखकों में लेखन के लिए जो सबसे अधिक डिमांड पर रहता है वो है 'अकेलापन'। खानुम अब 'ना रवा कहिये...कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये' गाने लगी है।


मुझे भी पहले लिखना तब ही पसंद था जब अकेला वक़्त मिलता हो। भीड़ में बैठकर, जिंदगी के हलचल में घुसकर लिखना चाहिए। मैं अब वैसा ही करूंगा। और लिखने के लिए चाय-सिगरेट यह तो और भी बेकार शौक है। मुझे सिगरेट तो पहले भी नहीं चाहिए था। अब चाय भी नहीं चाहिए। लिखने वाले सभी से अपील है, 'जिंदगी के हलचल में घुसकर उसे वैसे ही 'सपाट-सीधा-सरल-जस के तस' दर्ज कीजिये। 

मुझे कभी-कभी आश्चर्य लगता है कि जेएनयू की सड़कें कितनी खाली हो जाती हैं। अभी तो इग्यारह भी नहीं बजा है। एक गाड़ी क्रॉस करने के बीच लगभग पैंतालीस सेकंड का इंटरवल है। 

अब दर्ज करने को कुछ नहीं है। पता नहीं कभी जेएनयू में अपना कमरा होगा या नहीं! यदि कभी होगा तो उसकी एक दीवार पर पाश की कविता या शायद बोर्खेज की 'यु लर्न' चिपका दूँगा? शायद...

नीतीश।
09/07/2021

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