दिल्ली डायरीज: फोर्टीन्थ

एक ही दिन में कितने उतार-चढ़ाव होते हैं। सुबह से लेकर शाम तक बिखरी दिनचर्या में भावनाओं का समंदर ऐसी हिलोरें मारता है कि कभी खुश तो कभी उदासी सी छा जाती है। धीरे-धीरे मैंने यह अनुभव करना सीख लिया है कि सुख और दुख बेहद आम सा हो चुका है। आज की दिनचर्या में भी लिया गया छोटा सा टारगेट पूरा नहीं हुआ। सेन्टर फ़ॉर पोलिटिकल स्टडीज का कमरा संख्या 123 को आजकल कुछ दिनों से साथ रखने लगा हूँ। यह रिश्ता मुझे पसंद आ रहा है लेकिन दिक्कत बस इसी बात की है कि यह कब तक चलेगा। आज का मौसम जेएनयू में बेहद अच्छा था। शाम को बारिश हुई और फिर ठंडी हवा। आज दो बार चाय पीया हूँ। रात का भोजन तीस रुपये का पराठा से हो गया।

            ( बारिश के वक़्त बाहर की तस्वीर)

मैं कुछ और लिखना चाहता हूँ लेकिन लिख नहीं पा रहा हूँ। मेरी जिंदगी इतनी भी बोरिंग तो नहीं है कि मैं चाय और पराठे भर का जिक्र करुँ? क्या सच में ऐसा ही है? हो सकता है। आज दोपहर के बाद 123 में कोई नहीं था। रात के खाने के बाद ब्रह्मपुत्रा से एक क्लासमेट को एकांत स्थल की सुकून का बखान करके ले आया। बगल में सेंट्रल लाइब्रेरी है जिसमें लोग भरे हैं। पॉलिटिक्स ऑफ आइडियाज और पॉलिटिक्स ऑफ प्रजेंस का डिबेट पढ़ रहा था। ऐनी फिलिप्स एक ब्रिटिश राजनैतिक वैज्ञानिक है और वो पॉलिटिक्स ऑफ एक्सक्लूशन को कम करने के उपाय तलाश रही थीं। उनका ये मानना है कि आइडियाज को रिप्रेजेंट करना महत्वपूर्ण है लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उस आइडियाज को रिप्रेजेंट कौन कर रहा है? वो फिर रिप्रजेंटेशनल फॉर्म ऑफ डेमोक्रेसी पर भी अनेक सवाल करती हैं। मैं मायूस इसलिए भी हूँ कि मुझे इसपर 500 शब्दों में लिखना था लेकिन लिख नहीं पाया। मुझे अभी तुरंत यह आभास हुआ कि खुद से कुछ उम्मीद करना और उसे पूरा न करने का दुख तो ज़रूर होता है लेकिन मेहनत करने का सुकून, एक अंश भर कहीं न कहीं हमारे अंदर हिलोरें मारता है जो अगले दिन फिर से मेहनत करने को उत्साहित करता है।

                      ( 123 की खिड़की)

रात के बारह बजने वाले हैं और मैं अब यहाँ से निकलने का सोच रहा हूँ। इस जगह को यदि बयाँ करना हो, तो इसे बिल्कुल ऐसे ब्यान कर सकते हैं। आप सोच लीजिये कि आप बनारस के अस्सी घाट पर हैं। आपको भीड़-भाड़ या ज्यादा शोरगुल नहीं पसंद है। आप थोड़ा सा आगे बढ़कर किसी तीसरी घाट पर बैठ जाते हैं। अस्सी का धुन, संगीत भी धीरे-धीरे आपकी तरफ आता है। यह SSS II का कमरा 123 बिल्कुल वही है। बगल का सेंट्रल लाइब्रेरी को आप अस्सी समझ लीजिए। यह 123 वो घाट है जहाँ से सेंट्रल लाइब्रेरी के विशाल बिल्डिंग के आसपास रहने का अनुभव भी है और वहाँ के शोरगुल और भीड़भाड़ से बचकर आपको यहाँ शांति और प्राइवेट स्पेस भी मिल जाता है और यह भी लगता है कि यह जगह हमारा है, केवल हमारा, जिसे हमनें खोजा है। 

नीतीश
18/07/21

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