रात के करीब इग्यारह बजने वाले हैं। और मुझे बिल्कुल भी लिखने का मन नहीं कर रहा है। खाने के वक़्त संजीव आया और अपनी बहुत सारी बातें सुना कर गया। क्या केवल बात करके हल्का लग सकता है? मुझे केसी से कुछ लाना था लेकिन मैं भूल गया कि क्या? फिर भी कमरे से निकल गया। लाल रंग की एक शॉल ले आया हूँ। गले पर जब ओढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि किसी ने कंधे पर हाथ रखा है। आज एटीएम का पिन भी भूल गया। मोबाइल में रिचार्ज नहीं है इसीलिए अब कैश रखना ज़रूरी हो गया। आज मैंने ऑफ ले लिया, कई महीनों बाद। सुबह उठकर कमरा साफ किया। झाडू-पोछा और बालकनी में पड़े गंदे बर्तन को धोया। चादर और कपड़े को धोकर बालकनी में सूखने के लिए छोड़ दिया। गद्दा को सुखाने जब छत पर गया तो वहाँ से नजारा काफी खूबसूरत था। मैं कभी भी छत पर गया ही नहीं था। दिन में केसी से भटकते हुए भैया के पास चला गया। बथुआ का साग और आलू का भुजिया और चावल बनाकर छोटे भाई ने खिलाया।
कल शाम से ही कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। केसी से लौटते वक्त कनिष्क का कॉल आया और फिर वो कमरे में आया। हमने कुछ बातें की। वो बेहद ही प्रैक्टिकल है। जिंदगी को बेहद ही सरल तरीके से देखता है। मैंने कुछ समझाना चाहा उसे, और उसे लगा कि ये क्या है! जी कर रहा है कि किसी से बात करूं लेकिन फिर आपसी तालमेल से मैंने 'ना' चुना और लिखने बैठ गया। मेरा आज का दिन कल के 'cruel brutality of hope' के कारण ऐसा है। लेकिन अच्छा है।
नेपाल से अनुष्मा ने मानव की तारीफ में कल ही कुछ भेजा था। वो 'बहुत दूर कितना दूर होता है' पढ़ना चाहती है। मैंने जब मैसेज चेक किया तो मानव की पड़ी कोई कविता का लिंक था। मैंने अपनी उंगलियों को समेटकर उस लिंक पर क्लिक कर दिया। सुनने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था लेकिन मानव की पहली शब्द ने सारी हलचल को शांत कर दिया। कविता का शीर्षक है: बाल्टी और कविता कुछ यूँ है...
"वक़्त बीतते-बीतते निचोड़ता चलता है
एक बाल्टी तुमको
बाहर आँगन में जो कपड़े सूख रहे हैं
मेरे पुराने कपड़े
वो तुम्हारी याद का पानी छोड़ने को तैयार नहीं है
गुस्से में आके मैं नए कपड़े पहन रहा हूँ
नए कपडों में मैं खुदी को ही पराया देखता हूँ
वापस पुराने कपडों के पास जाता हूँ
वो शिकायत नहीं करती
वो शरीर पर ऐसे गिरते हैं मानो
बहुत दिनों बाद तुमने मुझे गले लगाया हो
आजकल मैं एक बाल्टी पानी में
पुराने और नए दोनों कपड़ों को एक साथ गला देता हूँ
इस आशा में कि
दोनों अपना थोड़ा-थोड़ा रंग एक दूसरे पर छोड़ दे
ताकि परायों में मैं अपना लगूँ
और अपना थोड़ा पराया हो जाय"
हाय! शायद अनुष्मा ने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया हो। कविता की भाषा और उसका हमपर पड़ने वाला प्रभाव कितना अलग हो सकता है और बहुत ही सामान भी। मैं अपने लिखे से कभी कुछ नहीं छुपाना चाहता हूँ। शायद कभी आये जिस दिन मैं सबकुछ जस का तस लिख दूँ जैसी ये दुनिया है, जैसा मैं इसे देखता है या जैसा मैं हूँ लेकिन अबतक ऐसा कुछ न हुआ है। मैं बँधा-बँधा कर सकता हूँ महसूस, हो सकती है कि मैं साँस सही से न ले पा रहा हूँ, हो सकता है मैं सफोकेट फील करता हूँ लेकिन मैं ये तब तक करूँगा जब तक मैं इसपर बिलीव करता हूँ। जब तक मुझे मेरे आंसर न मिल जाय। लिखते- लिखते बिल्कुल वैसा ही महससू होता है जैसे जिंदगी की टेढी लाइन होती है। कभी हल्का महसूस होता है और कभी फिर से भारी लगने लगता है। यदि मैं कागज में लिख रहा होता तो दो-चार शब्दों के इंक जरूर से धुँधले हो गए होते..
Periyar,
JNU.
11/12/21
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