जब तक लिखें न तब तक बैचेनी होनी चाहिए। मैंने कई बार अपने ब्लॉग में इस बात का जिक्र किया है। आज एक बहुत लंबे अंतराल के बाद मैं लिख रहा हूँ। शायद एक महीने से ज्यादा। नोट्स में आखिरी ब्लॉग 26 दिसंबर का दिख रहा है। मतलब लगभग दो महीने। बैचलर और मास्टर्स के दौरान एक चीज़ का अंतर है। बनारस में सबकुछ अपने मन का पढ़ता था। एक लंबा समय साहित्य के साथ बिता जिसमें कविताएं सबसे अहम था। मास्टर्स में खाली वक़्त बिल्कुल भी नहीं है। एक बहुत बड़ा डिस्टेंस क्रिएट हो चुका है साहित्य से। जी करता है कि कोई अच्छी सी नॉवेल पढूँ। बैचलर में पढ़ाई बिना कोई अर्थ के करता था। केवल यह अर्थ था कि पढ़ना है। किताबें खत्म करनी है। अब सबकुछ कैल्कुलटेड लगता है।
समय दस बजकर सैंतीस मिनट। सुबह सवेरे जगने के लिए रात को सवेरे सोने की एक असफल कोशिश करके टहलने निकल चुका हूँ। कई दिनों से ऐसी जगह की तलाश थी। रिंग रोड से एशसीआईएस के पार्किंग स्लॉट में आ कर बैठ गया हूँ। दो पैरों के बीच कई चिट्टा है जो धीरे-धीरे दौर रहा है। कहीं दूर से मशीन की आवाज आ रही है। मैंने अपने पैर को आगे की तरफ फैला दिया है। कल जेएनयू से जा रहा हूँ। आखिरी बार जब गया था तो बेहद अचानक फैसला था। कुछ चीज़ें ऐसी होती है जो हमें भी पता नहीं चलता है। जिस वक्त हमें खबर मिलती है तो बिल्कुल ऐसा लगता है जैसे कोई अपना दुख के समय आपको न याद करके किसी दूसरे को याद किया हो, जो आपका उसके जीवन मे कम अहमियत को दिखाता हो। टीस सी आती है। तमाम अपसेट माहौल के बावजूद इसबार जेएनयू से जाना अच्छा नहीं लग रहा है। इससे अधिक कुछ नहीं कह सकता ।
अच्छा नहीं लिख पा रहा हूँ। न जाने क्यों। शायद कुछ और करना चाहता था इस वक़्त। ठहर कर, रूक कर बात करना अब तक नहीं आया है। मुझे नहीं लगता कि मैं इससे अधिक लिख पाउँगा.....
मोंटा रे, बजने लगा दिया हूँ। आँसू की तलाश थी कई दिन से। मैंने एक तस्वीर खींचा और व्हाट्सएप्प पर लगा दिया। कैप्शन था, "बिफोर द डिपार्चर: हग विथ आइसोलेशन।" लगभग छः महीने घर से दूर। माँ कितनी खूबसूरत है। इन छः महीनों में मुश्किल से छः घंटे बात किया हूँ। ऐसा लगता है कि कौन है वो, जिसने मुझे जन्म दिया और मैं उन्हें भूलते जा रहा हूँ। शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब मैं उनके बारे में सोचता हूँ। कि उन्होंने खाना खाया या नहीं। इन महीनों में कितनी ही बार उनकी तबियत खराब हुई होगी। मुझे कुछ पता नहीं है। कितनी ही बार वो अकेला महसूस कर रही होंगी। मुझे कुछ पता नहीं है। कुछ भी नहीं। सात साल से घर से दूर हूँ। सप्रेशन मेरे जीवन का सबसे बड़ा सच है। विल का सप्रेशन। माँ को बस छुट्टीयों में देखता था। एकदम चुप सी। हमेशा मेरे लिए खड़ी होती हुई। पापा जब भी करियर के नाम पर घेरते थे तो माँ बस इतना कहती थी कि ओकरा जे करे के हेते, उ कैर लेते। मैंने इससे अधिक फ्रीडम कहीं नहीं दिखा। जेएनयू के सड़कों या क्लास में भी नहीं। वो ऐसा फ्रीडम है, जिससे डर लगता है। जो अपने आप एक ऑब्लिगेशन और ड्यूटीज से बाँध देता है।
मेरे जाने का वक़्त आ गया है। वापस आऊँगा। जेएनयू के आजाद से मिलने, उसे सिखाने और बताने, कि मेरे घर में कोई है, मेरी माँ, उनकी आजाद से बड़ा कोई नहीं है।
19/02/2022
जेएनयू।
❤️❤️❤️
ReplyDeleteYou inspire me nitish to grow and learn more🌼💝
ReplyDelete"वो ऐसा फ्रीडम है , जिससे डर लगता है .......बाँध देता है।" 💙
ReplyDeleteWhy is this so relatable?
ReplyDeleteHuman experiences are more or less relatable. Social locations create some intensity in realisation but we as human beings pass through some sort of same process, circumstances shape us.
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