उलूल-जुलूल: एक

रात के एक बजकर सोलह मिनट हो चुका है और दूर गली से कुत्ते की भौंकने (बात करने) की आवाज आ रही है। दूसरे बिस्तर पर अभिनव ने किशोर दा को बजने पर लगा दिया है। कमरे की बत्तियां बुझी हुई है। आज तीन दिन हो गए और कैंपस नहीं गया। कमरे से बाहर निकलने का मन नहीं करता है। अजीब सा डर है अंदर। दिन भर उतार-चढ़ाव देखने को मिलता है। कुछ पढा तो नहीं हूँ आजकल से। 

घर से आए कई दिन हो गए। लगभग तेरह दिन। इन बीच कुछ खास करने को नहीं मिला। जब घर पर था तो आने का बिल्कुल मन नहीं हो रहा था। टिकट अचानक से करा लिया और घरवालों को कह दिया कि जा रहा हूँ। उन्होंने कहा रूक जाओ, अभी जाकर के क्या करोगे। मैं कहाँ सुनने वाला! आते वक्त अजीब ही लग रहा था। जी कर रहा था कि टिकट कैंसल कर दूं। ज्यादा दिन घर पर रुकने से मोह लगने लगता है। याद आती है सबकी।
                   (छत से ली गयी तस्वीर)

मेरी जिंदगी का एक लंबा समय अपने घर से दूर बिता। पढ़ाई के लिए सात की उम्र में घर छोड़ना पड़ा। मैं क्यों हीं लिख रहा हूँ यह सब। बकवास। 

आज तीस अगस्त है। मुझे यह तारीख बेहद पसंद है। न जाने क्यों इसमें एक सीधापन है। एकदम सपाट सा लगता है। सिस्टेमेटिक टाइप। इन उलूल जुलूल बातों का कोई मतलब नहीं होता है? हर बात का अपना एक मतलब होता है बिल्कुल वैसे ही जैसे सब तो गाँव से ही आते हैं। शहर में सब तो गाँव से ही हैं। मैं बातों को घुमा रहा हूँ। 

थोड़ी बहुत बैचेनी है। हम सब जानते हैं फिर भी नहीं समझते हैं या हम समझना नहीं चाहते हैं। कुत्तों ने बात करना बंद कर दिया है? आवाज नहीं आ रही है। 

'उलूल-जुलूल' नाम रखेंगे इस सीरीज का। बनावटीपन को बेहद कम किया जाएगा अब इन ब्लॉग में। 'जमीन की खुश्बू" को तेज किया जाएगा। आंध्रा भवन से अचार लाया हूँ तो खाने में केवल दाल-चावल से भी बेहद स्वाद आता है। घी भी है। आप जब हमसें मिलें तो मुझसे मेरे हाथ का बना साग खिलाने के लिये ज़रूर पूंछ लें। 

वो कहते हैं न,

"प्यार का रास्ता
पेट से ही गुजरता है"

दिल्ली
30/08/2022

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