मैंने नोट्स चेक किया तो आखिरी ब्लॉग उन्नीस फेब का दिखा रहा था। घर जाने से एक दिन पहले। दो महीने से ज्यादा हो गया है लिखने का। घर से आने के बाद एक अलग बैचेनी थी। उन दिनों कुछ थोड़ा-थोड़ा लिखना शुरू किया। साथ आठ पंक्तियों में किसी की कहानी को लिख रहा था। मेरे लिखे में मेरा सेल्फ बिल्कुल ही इनग्रोस्सड रहता है। वो कहानी किसकी थी? एक तीस-पैंतीस साल का आदमी या फिर शायद वो पुरूष नहीं था? मैंने कहानी में आइडेंटिटी को कभी समझने का मौका नहीं दिया। वो अकेले रहता है। घर की यादें बेहद इंटिमेट है उसकी जिंदगी में। वो रातों में सिसक-सिसक के रोता है। लेकिन रोने को वो दुख नहीं समझता है। ऐसा भी नहीं है कि सोशल नहीं है बस सोशल का डेफिनिशन डिफरेंट है। शायद उसका सोशल "इंटरनल इंडिविजुअल" है। उसके अंदर की दुनिया। ऐसी दुनिया जहाँ वो अकेले सबसे कनेक्ट कर लेता है। आफिस से लौटते वक्त पत्थर बटोरता है फिर उसपे पँक्तियाँ लिखता है। सरसों के साग के साथ बीड़ी पीता है।
मुझे सचमुच में डर लगने लगा है। ऐसी जिंदगी को मैं उतार रहा था। कितनी ही लोग तो जीते होंगे ऐसा ही। रात के बारह बजने वाला है। बाहर खूब हवा चल रही है। सीपीएस जैसा कि बारह बजने के बाद रोमांटिक हो जाता है बिल्कुल वैसा ही है। अरूज़ आफताब नई खोज है मेरी लिस्ट में। इनायात बजने लगा दिया हूँ। इंडियन एक्सप्रेस ने छापा कि अरूज़ ने जितने भी गाने को गाया, कभी भी लिरिक्स को क्रेडिट नहीं दिया। कभी नहीं। अब जैसे 'मोहब्बत' हाफिज होशियारपुरी की ग़ज़ल है तो वहीं 'कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया' को सुदर्शन फ़क़ीर ने लिखा था। अंदर से जब भी निकले तो निकलने देना चाहिए कि आपने मुझे इतना प्रभावित किया है। सबको, जो भी लगे कि कुछ तो इसमें था जिसने मुझे शेप किया। मैंने गाना बदल दिया। बेग़म अख्तर मोमिन का 'वो जो हम में तुम में क़रार था' गा रही है।
अब जेएनयू का मास्टर्स मुश्किल से एक से डेढ़ महीना बचा होगा। गैलरी में एक तस्वीर थी। खिड़की की। खिड़की के बाहर अंधेरा। जिंदगी बिल्कुल वैसी ही है। मास्टर्स के बाद ऐसा स्पेस खुला है जहाँ से सब कुछ देखा जा सकता है लेकिन सब अंधेरा है। बिल्कुल घुप्प अंधेरा। अंधेरे में दिए कि छोटी सी कोई रोशनी है तो वो पीएचडी में एड्मिसन है।अंतर बस है कि जब तक आप मास्टर्स में हैं तो अंधेरे के बाहर हैं, पीएचडी में जाते वक्त आपको खिड़की से कूदना पड़ेगा, अंधेरे में। दिए की रोशनी बस फेलोशिप होती है जिसमें तेल दो-तीन-चार महीने के अंतराल में पड़ती है। बेहद शौकीन काम है। पढ़ने के लिए कौन ही पैसा देता है आजकल!
जेएनयू का डिक्लाइन फेज आ रहा है। ग्लोरियस टाइम कब का बीत चुका है।
जेएनयू।
25/04/2022
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