रात के आठ बज चुका है। इतने सवेरे को बजना भी नहीं कहते हैं। हमेशा देर रात बैठने लिखता था। बैठता ही कहाँ था। कुछ थोड़ा परेशान हूँ। न जाने क्यों? बस ठीक है, ठीक ही है। मास्टर्स खत्म हो चुका है। जिंदगी के अध्याय में एक डिग्री और जुड़ गया है। दिल्ली में रहने का मन नहीं करता है। मजबूरी में रहना पड़ेगा। चाहे जैसे भी हो। पूंजीवादी व्यवस्था में जकड़न भी इतना अपना लगता है कि कुछ भी महसूस होना पर्याप्त नहीं होता है कि इंसान उसे रेसिस्ट कर ले।
(the post midnight fluctuations)
लिखते वक्त दिमाग में कुछ चल रहा है। अजीब है सबकुछ। बिखरा-बिखरा सा। बेतरतीब। क्या ही है पटरी पे? कल मार्क्सिसम का पेपर लिखना है। अब पता नहीं कि जेएनयू में कितना रहना है। इन डेढ़ सालों ने इतना पेसिमिस्ट बना दिया है कि रोचक कुछ नहीं लगता है। हमारी सोचने की कैटेगोरीज़ हमें ऐसा बनाती है। 'जन गण मन" फ़िल्म देखने के बाद ऐसा लग रहा था कि हमारा रेजिस्टेंस भी स्टेट का फार्मेशन है। ऐसा कुछ नहीं है जिसे हम ऑटोनोमस कह सकें। शायद जेएनयू का पेसिमिसिम कुछ ऐसा दे जिससे हम एक नई सोलिडेरिटी का फार्मेशन कर सकें। वर्तमान की सारी कैटेगोरीज़ फेल है, हमें नया इमेजिनेशन चाहिए। जेएनयू कभी भी अपना नहीं लगा। इसकी ईंटें, इसकी दीवारें या इसकी सड़कें सब पराया-पराया सा ही महसूस हुआ। बहुत शॉकिंग हो सकता है लेकिन सच यही है। मैं जब आँखें बंद करता हूँ तो कुछ नहीं दिखता है जो रोमांचित कर दे। शायद अब भी मुझे कैमरा का जेएनयू ज्यादा पसंद है। शायद अब भी मुझे वो जेएनयू पसंद है जिसे मैं बीएचयू से देखता था। वैसा अनुभव बस एक ही बार आया था जब जेएनयू के अंदर पहली बार आया। यहाँ अंदर आने में डर नहीं लगा था। फरवरी का महीना था और लौटते वक्त बारिश हो गई थी। उसी दिन महसूस हो गया था कि यहाँ सबकुछ अच्छा नहीं होने वाला है। मैं निकलना चाहता हूँ यहाँ से जितना जल्दी हो सके। शायद मोहब्बत तब ही कायम रहे जब दूर रहूँ। प्रोक्सिमिटी में रहकर प्रेम को झेलना संभव नहीं है।
सब बोरिंग लगता है। कुछ नया करना है। विसुअल्स शायद। क्या करना है अभी पता नहीं है। शायद घर निकल जाऊं एग्जाम के बाद। पता नहीं। थोड़ा सुकून चाहिए। यहाँ संभव नहीं है। एक ब्रेक। घर का खाना और फिर पढ़ाई। दीदी को कॉल किया लेकिन वो फोन नहीं उठाई। जब से उनकी शादी हुई है वो बहुत कम फोन करती हैं। पापा हमेशा कहते हैं कि तुम किसी से मतलब नहीं रख पाओगे। सेल्फिश हो। हमेशा डर लगता है कि एक दिन मैं किसी भी रिश्ते की गर्माहट को नहीं बचा पाउँगा।
जेएनयू
12/06/2022
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