घर की याद आ रही है। बेहद याद आ रही है। दिल्ली को छोड़कर बिहार आ गया हूँ। करीब पंद्रह दिन हुए हैं। घर से करीब साठ किलोमीटर ही दूर हूँ। कोसी के इलाके में। जिस संगठन में काम कर रहा हूँ, वह छुट्टी शब्द से घृणा करता है। ऊपर वालों ने छुट्टी की रिक्वेस्ट भी रिजेक्ट कर दिया। बचपन मे दुर्गापूजा के मेले में जाकर झालमुड़ी खाता था, अमादि वाला। अमादि अदरक का ही एक देहाती रूप है। चूरा फ्राई में हमारे तरफ खूब खाते हैं लोग। मुझे बेहद पसंद है। फील्ड से लौटते वक्त आज मन बना लिया था कि कल सुबह घर निकलूँगा। इस आर्गेनाईजेशन में पंद्रह दिन जॉइन किये हुए और आज पहला दिन था जब मजा आया। आज फील्ड पर लोगों से बात करके अच्छा लगा।
जसिन्दा केरकेट्टा को पढ़ने का आज जी कर रहा है लेकिन नींद भी आ रही है। फेसबुक खोला तो हसदेव अरण्य में पेड़ कटने की तस्वीरें आ रही है। दूसरी तरफ लोग राहुल की बारिश में भींगने वाली तस्वीर को शेयर करके भारत की तकदीर बदलने की बात करते हैं। आलसी हैं इस देश के लोग जो कांग्रेस में भारत की भविष्य को देखते हैं। वो मेहनत नहीं करना चाहते। उन्हें बस सत्ता बदलना है ताकि सड़क पर कैंडल मार्च निकाल सके। कांग्रेस आएगी तो आदिवासियों पे UAPA तो लगता रहेगा लेकिन अर्बन इंटेलकटुअल्स पर नहीं लगेगा। उन्हें बोलने मिल सकता है और प्रोटेस्ट करने मिल जाएगा। वो उसी से खुश हैं।
विकाश भैया ने जसिन्दा केरकेट्टा की कविता शेयर करते लिखा, "सारे सूरज कोयला बन जाएं ताकि उससे समस्त मानव जाति फायदा ले सकें।" दिल्ली जाने का मन कर रहा है। जी कर रहा है कि तुमसे फिर बात कर सकूँ। बहुत सारे दोस्तों से बातचीत और बहस को होल्ड पर रख दिया हूँ। पहला कॉरपोरेट जॉब में वर्क-लाइफ बैलेंस का बैंड बज गया है। आज एक व्यक्ति से बात करते हुए उसने कहा, "जितना खर्च इधर का लोग मंदिर पर करता है अगर उतना स्कूल-कॉलेज पर करता तो आज बहुत कुछ ठीक होता। आम्बेडकर हमेशा कहते थे कि स्कूल जाओ, मंदिर नहीं।" यह पूरे दिन की सबसे खूबसूरत लाइन थी।
नींद आ रही है। कपड़े बदलकर किताबों को बैग से निकाल कर टेबल पर रख दूँगा। किताबों पर कम से कम नजर पड़ती रहे।
नीतीश
मधेपुरा
04/10/2022
Bohot krantikari 👏👏
ReplyDeleteवाह क्या खूब लिखे है।
ReplyDeleteसंगठन में छुट्टी😜😜😊