महीनों गुजर गए। शाम के करीब सात बजकर पंद्रह मिनट हो गए हैं। मैने कितने दिन से कुछ नहीं लिखा हूं। आखिरी बार जब लिखने बैठा था तो बुद्ध विहार के पार्क में था। ऊपर की बस एक लाइन ही लिख पाया था। अभी सुबह के दस से ज्यादा बज चुके हैं। मास्टर्स किए हुए छः महीने हो चुके...
अभी शाम के सात बज चुके हैं और मैं रतलाम जाने वाली ट्रेन में अपनी सीट पर लेटा हूं। जी कर रहा था की स्टेशन से वापस जेएनयू लौट जाऊं। इस जगह को छोड़ने की हर प्रक्रिया बेहद ही अजीब होती है। ऐसा लगता है जैसे यहां दोबारा नहीं आ पाऊंगा। लिखना चाहता हूं लेकिन शब्द नहीं निकल रहे।
( पहली बार एमपी जाते वक्त दोस्त ने यह तस्वीर खींची थी। कुछ दिन पहले जब उसने यह भेजा तो उसने लिखा था, "Now this journey will be permanent."♥️ )
रोना एक स्वस्थ प्रक्रिया है। अब मन करता है कि अकेले रहूं। मुझसे लिखा नहीं जा रहा है। मैं नहीं लिखूंगा। मुझे डर है जैसे मुझसे मेरी कविता छूट गई वैसे ही यह भी छूट जाएगी। बेतरतीब लिखने की यह कोशिश अब अपनी आखिरी दिनों में है। मैं कुछ मिटाना नहीं चाहता हूं। मैं बहुत ज्यादा सोचता हूं।
दोस्त ने कीचा के यहां से लाकर मफिन दिया है। दो दिनों से एक टीस है। मैं अब वो कुछ भी नहीं करना चाहता हूं जिसमे मुझे एफर्ट लगाना पड़े और जिससे मुझे तकलीफ हो।
मफिन बेहद अच्छी थी। दो साल मैने जेएनयू में रहकर कीचा के बारे में नहीं जान पाया था। मैने अपने पुराने ब्लॉग्स निकाल कर पढ़ा। सारे ब्लॉग्स में एक करंट था। जो अपने आप लिखा चला जाता था। मैं समझ गया कि मैं अपने आसपास को नोटिस नहीं कर रहा हूं। प्लेटफार्म पर एक परिवार को सूरत जाना था। दो छोटे बच्चे और पत्नी और उनका ढेर सारा सामान। वो जनरल में ट्रैवल करने वाले थे। उनके पास टिकट नहीं थी।
कल अचानक से फिर घर जाने का मन कर रहा था। दीदी ने पूछा कि क्यों उदास हो और मैं हर बार की तरह उसे टाल दिया।
मैं शायद ही तुम्हें कभी समझ पाऊं।
In a train to Madhya Pradesh.
22/01/2023
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